धर्माधर्मयोरौदासीन्ये हेतूपन्यासोऽयम् ।
धर्मः किल न जीवपुद्गलानां कदाचिद्गतिहेतुत्वमभ्यस्यति, न कदाचित्स्थिति- हेतुत्वमधर्मः । तौ हि परेषां गतिस्थित्योर्यदि मुख्यहेतू स्यातां तदा येषां गतिस्तेषां गतिरेव, न स्थितिः, येषां स्थितिस्तेषां स्थितिरेव, न गतिः । तत एकेषामपि गतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतू । कि न्तु व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ । कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थानां गतिस्थिती भवत इति चेत्, सर्वे
अन्वयार्थः — [ येषां गमनं विद्यते ] (धर्म-अधर्म गति-स्थितिना मुख्य हेतुओ नथी, कारण के) जेमने गति होय छे [ तेषाम् एव पुनः स्थानं सम्भवति ] तेमने ज वळी स्थिति थाय छे (अने जेमने स्थिति होय छे तेमने ज वळी गति थाय छे). [ ते तु ] तेओ (गतिस्थितिमान पदार्थो) तो [ स्वकपरिणामैः ] पोताना परिणामोथी [ गमनं स्थानं च ] गति अने स्थिति [ कुर्वन्ति ] करे छे.
टीकाः — आ, धर्म अने अधर्मना उदासीनपणानी बाबतमां हेतु कहेवामां आव्यो छे.
खरेखर (निश्चयथी) धर्म जीव-पुद्गलोने कदी गतिहेतु थतो नथी, अधर्म कदी स्थितिहेतु थतो नथी; कारण के तेओ परने गतिस्थितिना जो मुख्य हेतु (निश्चयहेतु) थाय, तो जेमने गति होय तेमने गति ज रहेवी जोईए, स्थिति न थवी जोईए, अने जेमने स्थिति होय तेमने स्थिति ज रहेवी जोईए, गति न थवी जोईए. परंतु एकने ज ( – तेना ते ज पदार्थने) गति अने स्थिति थती जोवामां आवे छे; तेथी अनुमान थई शके छे के तेओ (धर्म-अधर्म) गति-स्थितिना मुख्य हेतु नथी, परंतु व्यवहारनयस्थापित (व्यवहारनय वडे स्थापवामां — कहेवामां आवेला) उदासीन हेतु छे.
प्रश्नः — ए प्रमाणे होय तो गतिस्थितिमान पदार्थोने गतिस्थिति कई रीते थाय छे?