छे. त्यां निश्चयकथनोनो तो सीधो ज अर्थ करवो जोईए अने व्यवहारकथनोने अभूतार्थ
समजी तेमनो साचो आशय शो छे ते तारववुं जोईए. जो आम करवामां न आवे तो
विपरीत समजण थवाथी महा अनर्थ थाय. ‘प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र छे. ते पोताना ज
गुणपर्यायने अने उत्पादव्ययध्रौव्यने करे छे. परद्रव्यने ते ग्रही-छोडी शकतुं नथी तेम ज
परद्रव्य तेने खरेखर कांई लाभनुकसान के सहाय करी शकतुं नथी. .....जीवनो शुद्ध पर्याय
संवर-निर्जरा-मोक्षना कारणभूत छे अने अशुद्ध पर्याय आस्रव-बंधना कारणभूत छे.’ -
आवा मूळभूत सिद्धांतोने क्यांय बाध न आवे एवी रीते हंमेशां शास्त्रनां कथनोनो अर्थ करवो जोईए. वळी आ शास्त्रने विषे केटलाक परमप्रयोजनभूत भावोनुं निरूपण अति संक्षेपमां ज करायेलुं होवाथी, जो आ शास्त्रना अभ्यासनी पूर्ति समयसार, नियमसार, प्रवचनसार वगेरे अन्य शास्त्रोना अभ्यास वडे करवामां आवे तो मुमुक्षुओने आ शास्त्रना आशयो समजवामां विशेष सुगमता थशे. आचार्यभगवाने सम्यग्ज्ञाननी प्रसिद्धि अर्थे अने मार्गनी प्रभावना अर्थे आ पंचास्तिकाय-संग्रह शास्त्र कह्युं छे. आपणे तेनो अभ्यास करी, सर्व द्रव्योनी स्वतंत्रता समजी, नव पदार्थोनी यथार्थ समजण करी, चैतन्यगुणमय जीवद्रव्यसामान्यनो आश्रय करी, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान प्रगटावी, मार्गने प्राप्त करी, भवभ्रमणनां दुःखोना अंतने पामीए ए ज भावना छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे पंचास्तिकायसंग्रहना सम्यक् अवबोधनुं फळ नीचेना शब्दोमां वर्णव्युं छेः — ‘‘जे पुरुष खरेखर समस्तवस्तुतत्त्वना कहेनारा आ ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ने अर्थतः अर्थीपणे जाणीने, एमां ज कहेला जीवास्तिकायने विषे अंतर्गत रहेला पोताने (निज आत्माने) स्वरूपे अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाळो निश्चित करीने, परस्पर कार्यकारणभूत एवा अनादि रागद्वेषपरिणाम अने कर्मबंधनी परंपराथी जेनामां स्वरूपविकार आरोपायेलो छे एवो पोताने (निज आत्माने) ते काळे अनुभवातो अवलोकीने, ते काळे विवेकज्योति प्रगट होवाथी (अर्थात् अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभावनुं अने विकारनुं भेदज्ञान ते काळे ज प्रगट वर्ततुं होवाथी) कर्मबंधनी परंपराने प्रवर्तावनारी रागद्वेष-परिणतिने छोडे छे, ते पुरुष, खरेखर जेने स्नेह जीर्ण थतो जाय छे एवो, जघन्य स्नेहगुणनी संमुख वर्तता परमाणुनी माफक भावी बंधथी पराङ्मुख वर्ततो थको, पूर्व बंधथी छूटतो थको, अग्नितप्त जळनी दुःस्थिति समान जे दुःख तेनाथी परिमुक्त थाय छे.’’ आसो वद ४, वि. सं. २०१३ — हिंमतलाल जेठालाल शाह