मूर्तकर्मसमर्थनमेतत् ।
यतो हि कर्मणां फलभूतः सुखदुःखहेतुविषयो मूर्तो मूर्तैरिन्द्रियैर्जीवेन नियतं भुज्यते, ततः कर्मणां मूर्तत्वमनुमीयते । तथाहि — मूर्तं कर्म, मूर्तसम्बम्धेनानुभूयमानमूर्त- फलत्वादाखुविषवदिति ।।१३३।।
वडे [ सुखं दुःखं ] सुखे अथवा दुःखे [ भुज्यते ] भोगवाय छे, [ तस्मात् ] तेथी [ कर्माणि ] कर्मो [ मूर्तानि ] मूर्त छे.
टीकाः — आ, मूर्त कर्मनुं समर्थन छे.
कर्मनुं फळ जे सुखदुःखना हेतुभूत मूर्त विषय ते नियमथी मूर्त इन्द्रियो द्वारा जीव वडे भोगवाय छे, तेथी कर्मना मूर्तपणानुं अनुमान थई शके छे. ते आ प्रमाणेः — जेम मूषकविष मूर्त छे तेम कर्म मूर्त छे, कारण के (मूषकविषना फळनी माफक) मूर्तना संबंध द्वारा अनुभवातुं एवुं मूर्त तेनुं फळ छे. [उंदरना झेरनुं फळ ( – शरीरमां सोजा थवा, ताव आववो वगेरे) मूर्त छे अने मूर्त शरीरना संबंध द्वारा अनुभवाय — भोगवाय छे, तेथी अनुमान थई शके छे के उंदरनुं झेर मूर्त छे; तेवी रीते कर्मनुं फळ ( – विषयो) मूर्त छे अने मूर्त इन्द्रियोना संबंध द्वारा अनुभवाय — भोगवाय छे, तेथी अनुमान थई शके छे के कर्म मूर्त छे.] १३३.
अन्वयार्थः — [ मूर्तः मूर्तं स्पृशति ] मूर्त मूर्तने स्पर्शे छे, [ मूर्तः मूर्तेन ] मूर्त मूर्तनी साथे [ बन्धम् अनुभवति ] बंध पामे छे; [ मूर्तिविरहितः जीवः ] मूर्तत्वरहित जीव [ तानि गाहति ] मूर्तकर्मोने अवगाहे छे अने [ तैः अवगाह्यते ] मूर्तकर्मो जीवने अवगाहे छे (अर्थात् बंने एकबीजामां अवगाह पामे छे).
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