Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 134.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

मूर्तकर्मसमर्थनमेतत

यतो हि कर्मणां फलभूतः सुखदुःखहेतुविषयो मूर्तो मूर्तैरिन्द्रियैर्जीवेन नियतं भुज्यते, ततः कर्मणां मूर्तत्वमनुमीयते तथाहिमूर्तं कर्म, मूर्तसम्बम्धेनानुभूयमानमूर्त- फलत्वादाखुविषवदिति ।।१३३।।

मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि
जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि ।।१३४।।
मूर्तः स्पृशति मूर्तं मूर्तो मूर्तेन बन्धमनुभवति
जीवो मूर्तिविरहितो गाहति तानि तैरवगाह्यते ।।१३४।।

वडे [ सुखं दुःखं ] सुखे अथवा दुःखे [ भुज्यते ] भोगवाय छे, [ तस्मात् ] तेथी [ कर्माणि ] कर्मो [ मूर्तानि ] मूर्त छे.

टीकाःआ, मूर्त कर्मनुं समर्थन छे.

कर्मनुं फळ जे सुखदुःखना हेतुभूत मूर्त विषय ते नियमथी मूर्त इन्द्रियो द्वारा जीव वडे भोगवाय छे, तेथी कर्मना मूर्तपणानुं अनुमान थई शके छे. ते आ प्रमाणेःजेम मूषकविष मूर्त छे तेम कर्म मूर्त छे, कारण के (मूषकविषना फळनी माफक) मूर्तना संबंध द्वारा अनुभवातुं एवुं मूर्त तेनुं फळ छे. [उंदरना झेरनुं फळ (शरीरमां सोजा थवा, ताव आववो वगेरे) मूर्त छे अने मूर्त शरीरना संबंध द्वारा अनुभवायभोगवाय छे, तेथी अनुमान थई शके छे के उंदरनुं झेर मूर्त छे; तेवी रीते कर्मनुं फळ (विषयो) मूर्त छे अने मूर्त इन्द्रियोना संबंध द्वारा अनुभवायभोगवाय छे, तेथी अनुमान थई शके छे के कर्म मूर्त छे.] १३३.

मूरत मूरत स्पर्शे अने मूरत मूरत बंधन लहे;
आत्मा अमूरत ने करम अन्योन्य अवगाहन लहे. १३४.

अन्वयार्थः[ मूर्तः मूर्तं स्पृशति ] मूर्त मूर्तने स्पर्शे छे, [ मूर्तः मूर्तेन ] मूर्त मूर्तनी साथे [ बन्धम् अनुभवति ] बंध पामे छे; [ मूर्तिविरहितः जीवः ] मूर्तत्वरहित जीव [ तानि गाहति ] मूर्तकर्मोने अवगाहे छे अने [ तैः अवगाह्यते ] मूर्तकर्मो जीवने अवगाहे छे (अर्थात बंने एकबीजामां अवगाह पामे छे).

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