प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति । उक्तञ्च — ‘‘चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति
येऽत्र केवलनिश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तबुद्धयोऽर्धमीलित- भारथी १मंथर थई गयेली चितवृत्तिवाळा वर्तता थका, देवलोकादिना क्लेशनी प्राप्तिनी परंपरा वडे घणा लांबा काळ सुधी संसारसागरमां भमे छे. कह्युं पण छे के — २चरण- करणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति ।। [अर्थात् जेओ चरणपरिणामप्रधान छे अने स्वसमयरूप परमार्थमां व्यापाररहित छे, तेओ चरणपरिणामनो सार जे निश्चयशुद्ध (आत्मा) तेने जाणता नथी.]३
[हवे केवळनिश्चयावलंबी (अज्ञानी) जीवोनुं प्रवर्तन अने तेनुं फळ कहेवामां आवे छेः — ]
हवे, जेओ केवळनिश्चयावलंबी छे, सकळ क्रियाकर्मकांडना आडंबरमां विरक्त बुद्धिवाळा वर्तता थका, आंखो अर्धी-विंचेली राखी कांइक पण स्वबुद्धिथी अवलोकीने
चरणकरणस्य सारं निश्चयशुद्धं न जानन्ति ।।
निश्चयमोक्षमार्गथी निरपेक्ष केवळशुभानुष्ठानरूप व्यवहारनयने ज मोक्षमार्ग माने छे, तेओ तेना वडे देवलोकादिना क्लेशनी परंपरा पामता थका संसारमां परिभ्रमण करे छे; परंतु जो शुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयमोक्षमार्गने माने अने निश्चयमोक्षमार्गनुं अनुष्ठान करवानी शक्तिना अभावने लीधे निश्चयसाधक शुभानुष्ठान करे, तो तेओ सराग सम्यग्द्रष्टि छे अने परंपराए मोक्षने पामे छे. — आम व्यवहार-एकांतना निराकरणनी मुख्यताथी बे वाक्य
कहेवामां आव्यां.
छे परंतु चारित्र-अपेक्षाए तेमने मुख्यपणे राग हयात होवाथी तेमने ‘सराग सम्यग्द्रष्टि’ कह्या छे एम समजवुं. वळी तेमने जे शुभ अनुष्ठान छे ते मात्र उपचारथी ज ‘निश्चयसाधक ( – निश्चयना साधनभूत)’ कहेवामां आव्युं छे एम समजवुं.]
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१. मंथर = मंद; जड; सुस्त.
२. आ गाथानी संस्कृत छाया आ प्रमाणे छेः
३. श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति-टीकामां व्यवहार-एकांतनुं नीचे प्रमाणे स्पष्टीकरण करवामां आव्युं छेः —