प्रख्यापनद्वारेण प्रकृष्टपरिणतिद्वारेण वा समुद्योतनम्; तदर्थमेव परमागमानुराग- वेगप्रचलितमनसा संक्षेपतः समस्तवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि प्रवचनस्य सारभूतं पञ्चास्तिकायसंग्रहाभिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति । अथैवं शास्त्रकारः प्रारब्धस्यान्तमुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भूत्वा परमनैष्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त इति श्रद्धीयते ।।१७३।।
इति समयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमार्गप्रपञ्चवर्णनो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।। द्वारा अथवा प्रकृष्ट परिणति द्वारा तेनो समुद्योत करवो ते; [परम वैराग्य करवानी जिनभगवाननी परम आज्ञानी प्रभावना एटले (१) तेनी प्रख्याति — जाहेरात — करवा द्वारा अथवा (२) परमवैराग्यमय प्रकृष्ट परिणमन द्वारा, तेनो सम्यक् प्रकारे उद्योत करवो ते;] तेना अर्थे ज ( – मार्गनी प्रभावना अर्थे ज), परमागम प्रत्येना अनुरागना वेगथी जेनुं मन अति चलित थतुं हतुं एवा में आ ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ नामनुं सूत्र कह्युं — के जे भगवान सर्वज्ञ वडे उपज्ञ होवाथी ( – वीतराग सर्वज्ञ जिनभगवाने स्वयं जाणीने प्रणीत करेलुं होवाथी) ‘सूत्र’ छे, अने जे संक्षेपथी समस्तवस्तुतत्त्वनुं (सर्व वस्तुना यथार्थ स्वरूपनुं) प्रतिपादन करनारुं होवाथी, अति विस्तृत एवा पण प्रवचनना सारभूत छे ( – द्वादशांगरूपे विस्तीर्ण एवा पण जिनप्रवचनना सारभूत छे).
आ रीते शास्त्रकार (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव) प्रारंभेला कार्यना अंतने पामी, अत्यंत कृतकृत्य थई, परमनैष्कर्म्यरूप शुद्धस्वरूपमां विश्रांत थया ( — परम निष्कर्मपणारूप शुद्धस्वरूपमां स्थिर थया) एम श्रद्धवामां आवे छे (अर्थात् एम अमे श्रद्धीए छीए). १७३.
आ रीते (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रनी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित) समयव्याख्या नामनी टीकामां नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्ग- प्रपंचवर्णन नामनो द्वितीय श्रुतस्कंध समाप्त थयो.
[ हवे, ‘आ टीका शब्दोए करी छे, अमृतचंद्रसूरिए नहि’ एवा अर्थनो एक छेल्लो श्लोक कहीने अमृतचंद्राचार्यदेव टीकानी पूर्णाहुति करे छेः ]