अन्वयार्थः — [कालः इति] काळ (निश्चयकाळ) [व्यपगतपञ्चवर्णरसः] पांच वर्ण ने पांच रस रहित, [व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शः च] बे गंध ने आठ स्पर्श रहित, [अगुरुलघुकः] अगुरुलघु, [अमूर्तः] अमूर्त [च] अने [वर्तनलक्षणः] वर्तना- लक्षणवाळो छे.
*भावार्थः — अहीं निश्चयकाळनुं स्वरूप कह्युं छे.
लोकाकाशना एकेक प्रदेशे एकेक काळाणु (काळद्रव्य) स्थित छे. आ काळाणु (काळद्रव्य) ते निश्चयकाळ छे. अलोकाकाशमां काळाणु (काळद्रव्य) नथी.
आ काळ (निश्चयकाळ) वर्ण-गंध-रस-स्पर्श रहित छे, वर्णादि रहित होवाथी अमूर्त छे अने अमूर्त होवाथी सूक्ष्म, अतींद्रियज्ञानग्राह्य छे. वळी ते षट्गुण- हानिवृद्धिसहित अगुरुलघुत्वस्वभाववाळो छे. काळनुं लक्षण वर्तनाहेतुत्व छे; एटले के, जेम शियाळामां स्वयं अध्ययनक्रिया करता पुरुषने अग्नि सहकारी ( – बहिरंग निमित्त) छे अने जेम स्वयं फरवानी क्रिया करता कुंभारना चाकने नीचेनी खीली सहकारी छे तेम निश्चयथी स्वयमेव परिणाम पामतां जीव-पुद्गलादि द्रव्योने (व्यवहारथी) काळाणुरूप निश्चयकाळ बहिरंग निमित्त छे.
प्रश्नः — अलोकमां काळद्रव्य नथी तो त्यां आकाशनी परिणति कई रीते थई शके?
उत्तरः — जेम लटकती मोटी दोरीने, मोटा वांसने के कुंभारना चाकने एक ज जग्याए स्पर्शवा छतां सर्वत्र चलन थाय छे, जेम मनोज्ञ स्पर्शनेन्द्रियविषयनो के रसनेन्द्रियविषयनो शरीरना एक ज भागमां स्पर्श थवा छतां आखा आत्मामां सुखानुभव थाय छे अने जेम सर्पदंश के व्रण (जखम) वगेरे शरीरना एक ज भागमां थवा छतां आखा आत्मामां दुःखवेदना थाय छे, तेम काळद्रव्य लोकाकाशमां ज होवा छतां आखा आकाशमां परिणति थाय छे कारण के आकाश अखंड एक द्रव्य छे.
*श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे आ २४मी गाथानी टीका लखी नथी तेथी गुजराती अनुवादमां अन्वयार्थ पछी तुरत ज भावार्थ लखवामां आव्यो छे.