भावार्थः — ‘समय’ निमित्तभूत एवा मंद गतिए परिणत पुद्गल-परमाणु वडे प्रगट थाय छे — मपाय छे (अर्थात् परमाणुने एक आकाशप्रदेशेथी बीजा अनंतर आकाशप्रदेशे मंद गतिथी जतां जे वखत लागे तेने समय कहेवामां आवे छे). ‘निमेष’ आंखना वींचावाथी प्रगट थाय छे (अर्थात् खुल्ली आंखने वींचातां जे वखत लागे तेने निमेष कहेवामां आवे छे अने ते एक निमेष असंख्यात समयोनो होय छे). पंदर निमेषनी एक ‘काष्ठा’, त्रीश काष्ठानी एक ‘कळा’, वीशथी कांईक अधिक कळानी एक ‘घडी’ अने बे घडीनुं एक ‘मुहूर्त’ बने छे. ‘अहोरात्र’ सूर्यना गमनथी प्रगट थाय छे (अने ते एक अहोरात्र त्रीश मुहूर्तनुं होय छे). त्रीश अहोरात्रनो एक ‘मास’, बे मासनी एक ‘ॠतु’, त्रण ॠतुनुं एक ‘अयन’ अने बे अयननुं एक ‘वर्ष’ बने छे. — आ बधो व्यवहारकाळ छे. ‘पल्योपम’, ‘सागरोपम’ वगेरे पण व्यवहारकाळना भेदो छे.
उपरोक्त समय-निमेषादि बधाय खरेखर केवळ निश्चयकाळना ज ( – काळद्रव्यना ज) पर्यायो छे परंतु तेओ परमाणु वगेरे द्वारा प्रगट थता होवाथी (अर्थात् पर पदार्थो द्वारा मापी शकाता होवाथी) तेमने उपचारथी पराश्रित कहेवामां आवे छे. २५.
अन्वयार्थः — [ चिरं वा क्षिप्रं ] ‘चिर’ अथवा ‘क्षिप्र’ एवुं ज्ञान ( – बहु काळ अथवा थोडो काळ एवुं ज्ञान) [मात्रारहितं तु] परिमाण विना ( – काळना माप विना) [न अस्ति] होय नहि; [सा मात्रा अपि] अने ते परिमाण [खलु] खरेखर [पुद्गलद्रव्येण विना] पुद्गलद्रव्य विना थतुं नथी; [तस्मात्] तेथी [कालः प्रतीत्यभवः] काळ आश्रितपणे ऊपजनारो छे (अथात् व्यवहारकाळ परनो आश्रय करीने ऊपजे छे एम ऊपचारथी कहेवाय छे). पं. ७