सर्वदेशेषु युगपद्वयापृता कथञ्चित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयान्तरमनाप्नुवन्ती न विवर्तते । स खल्वेष निश्चितः सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भः । अयमेव द्रव्यकर्मनिबन्धनभूतानां भाव- कर्मणां कर्तृत्वोच्छेदः । अयमेव च विकारपूर्वकानुभवाभावादौपाधिकसुखदुःखपरिणामानां भोक्तृ त्वोच्छेदः । इदमेव चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानन्तचैतन्यस्यात्मनः स्वतन्त्र- स्वरूपानुभूतिलक्षणसुखस्य भोक्तृ त्वमिति ।।२८।।
विनाश पामे छे, त्यारे ते ज्ञेयभूत विश्वना सर्व देशोमां युगपद् व्यापार करती थकी कथंचित् १कूटस्थ थईने, अन्य विषयने नहि पामती थकी विवर्तन करती नथी. ते आ (चित्शक्तिना विवर्तननो अभाव), खरेखर निश्चित ( – नियत, अचळ) सर्वज्ञपणानी अने सर्वदर्शीपणानी उपलब्धि छे. आ ज, द्रव्यकर्मोना निमित्तभूत भावकर्मोना कर्तृत्वनो विनाश छे; आ ज, विकारपूर्वक अनुभवना अभावने लीधे २औपाधिक सुखदुःख- परिणामोना भोक्तृत्वनो विनाश छे; अने आ ज, अनादि विवर्तनना खेदना विनाशथी जेनुं अनंत चैतन्य सुस्थित थयुं छे एवा आत्माने स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षण सुखनुं ( – स्वतंत्र स्वरूपनी अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवा सुखनुं) भोक्तृत्व छे. २८.
अन्वयार्थः — [सः चेतयिता] ते चेतयिता (चेतनारो आत्मा) [सर्वज्ञः] सर्वज्ञ [च] अने [सर्वलोकदर्शी] सर्वलोकदर्शी [स्वयं जातः] स्वयं थयो थको, [स्वकम्] स्वकीय
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१. कूटस्थ=सर्वकाळे एक रूपे रहेनारी; अचळ. [ज्ञानावरणादिकर्मोनो संबंध नष्ट थतां कांई चित्शक्ति सर्वथा अपरिणामी थई जती नथी; परंतु ते अन्य अन्य ज्ञेयोने जाणवारूपे पलटाती नथी — सर्वदा त्रणे काळना समस्त ज्ञेयोने जाण्या करे छे, तेथी तेने कथंचित् कूटस्थ कही छे.]
२. औपाधिक=द्रव्यकर्मरूप उपाधि साथे संबंधवाळा; द्रव्यकर्मरूप उपाधि जेमां निमित्त होय छे एवा; अस्वाभाविक; वैभाविक; विकारी.