Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
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जीवत्वं, चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षण उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकार- शक्ति मात्रं प्रभुत्वं, समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्त्र्य- लक्षणसुखोपलम्भरूपं भोक्तृ त्वं, अतीतानन्तरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं, उपाधिसम्बन्धविविक्त मात्यन्तिकममूर्तत्वम् कर्मसंयुक्त त्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कन्धा भावकर्माणि तु चिद्विवर्ताः विवर्तते हि चिच्छक्ति रनादिज्ञानावरणादिकर्मसम्पर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसम्पर्कः प्रणश्यति तदा परिच्छेद्यस्य विश्वस्य


जीवत्व’ होय छे; चिद्रूप जेनुं लक्षण (स्वरूप) छे एवुं ‘चेतयितृत्व’ होय छे; चित्परिणाम जेनुं लक्षण (स्वरूप) छे एवो ‘उपयोग’ होय छे; प्राप्त करेला समस्त (आत्मिक) अधिकारोनी *शक्तिमात्ररूप ‘प्रभुत्व’ होय छे; समस्त वस्तुओथी असाधारण एवा स्वरूपनी निष्पत्तिमात्ररूप (निज स्वरूपने रचवारूप) ‘कर्तृत्व’ होय छे; स्वरूपभूत स्वातंत्र्य जेनुं लक्षण (स्वरूप) छे एवा सुखनी उपलब्धिरूप भोक्तृत्व’ होय छे; अतीत अनंतर (छेल्ला) शरीर प्रमाणे अवगाहपरिणामरूप देहप्रमाणपणुं’ होय छे; अने उपाधिना संबंधथी विविक्त एवुं आत्यंतिक (सर्वथा) अमूर्तपणुं’ होय छे. (मुक्त आत्माने) ‘कर्मसंयुक्तपणुं’ तो नथी ज होतुं, कारण के द्रव्यकर्मो अने भावकर्मोथी विमुक्ति थई छे. द्रव्यकर्मो ते पुद्गलस्कंधो छे अने भावकर्मो ते चिद्दविवर्तो छे. चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादिकर्मोना संपर्कथी (संबंधथी) संकुचित व्यापारवाळी होवाने लीधे ज्ञेयभूत विश्वना (समस्त पदार्थोना) एक एक देशमां क्रमे व्यापार करती थकी विवर्तन पामे छे. परंतु ज्यारे ज्ञानावरणादिकर्मोनो संपर्क

*शक्ति=सामर्थ्य; ईशत्व. (मुक्त आत्मा समस्त आत्मिक अधिकारोने भोगववामां अर्थात् तेमनो अमल करवामां स्वयं समर्थ छे तेथी ते प्रभु छे.)

१. मुक्त आत्मानी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होय छे तेथी ते छेल्ला देहनी अपेक्षा लईने तेमने देहप्रमाणपणुं’ कही शकाय छे.

२. विविक्त=भिन्न; रहित.

३. पूर्व सूत्रमां कहेला ‘जीवत्व’ आदि नव विशेषोमांथी प्रथमना आठ विशेषो मुक्तात्माने पण यथासंभव होय छे, मात्र एक ‘कर्मसंयुक्तपणुं’ होतुं नथी.

४. चिद्दविवर्त=चैतन्यनो पलटो अर्थात् चैतन्यनुं एक विषयने छोडी अन्य विषयने जाणवारूपे पलटावुं ते; चित्शक्तिनुं अन्य अन्य ज्ञेयोने जाणवारूपे परिणमवुं ते.