कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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कृतकृत्यत्वाच्च स्वतोऽव्यतिरिक्तस्वाभाविकसुखं ज्ञानमेव चेतयंत इति।। ३८।।
सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं।
पाणित्तमदिक्कंता णाणं विंदंति ते जीवा।। ३९।।
सर्वे खलु कर्मफलं स्थावरकायास्त्रसा हि कार्ययुतम्।
प्राणित्वमतिक्रांताः ज्ञानं विंदन्ति ते जीवाः।। ३९।।
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द्वारा ‘ज्ञान’ को ही – कि जो ज्ञान अपनेसे १अव्यतिरिक्त स्वाभाविक सुखवाला है उसीको –चेतते
हैं, क्योंकि उन्होंने समस्त वीर्यांतरायके क्षयसे अनन्त वीर्यको प्राप्त किया है इसलिये उनको [विकारी
सुखदुःखरूप] कर्मफल निर्जरित हो गया है और अत्यन्त २कृतकृत्यपना हुआ है [अर्थात् कुछ भी
करना लेशमात्र भी नहीं रहा है]।। ३८।।
गाथा ३९
अन्वयार्थः– [सर्वे स्थावरकायाः] सर्व स्थावर जीवसमूह [खलु] वास्तवमें [कर्मफलं]
कर्मफलको वेदते हैं, [त्रसाः] त्रस [हि] वास्तवमें [कार्ययुतम्] कार्यसहित कर्मफलको वेदते हैं
और [प्राणित्वम् अतिक्रांताः] जो प्राणित्वका [–प्राणोंका] अतिक्रम कर गये हैं [ते जीवाः] वे जीव
[ज्ञानं] ज्ञानको [विंदन्ति] वेदते हैं।
टीकाः– यहाँ, कौन क्या चेतता है [अर्थात् किस जीवको कौनसी चेतना होती है] वह कहा
है।
चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है और वेदता है –ये एकार्थ हैं [अर्थात् यह सब
शब्द एक अर्थवाले हैं], क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदनाका एक अर्थ है। वहाँ, स्थावर
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१। अव्यतिरिक्त = अभिन्न। [स्वाभाविक सुख ज्ञानसे अभिन्न है इसलिये ज्ञानचेतना स्वाभाविक सुखके संचेतन–
अनुभवन–सहित ही होती है।]
२। कृतकृत्य = कृतकार्य। [परिपूर्ण ज्ञानवाले आत्मा अत्यन्त कृतकार्य हैं इसलिये, यद्यपि उन्हें अनंत वीर्य प्रगट
हुआ है तथापि, उनका वीर्य कार्यचेतनाको [कर्मचेतनाको] नहीं रचता, [और विकारी सुखदुःख विनष्ट हो गये
हैं इसलिये उनका वीर्य कर्मफल चेतनेाको भी नहीं रचता,] ज्ञानचेतनाको ही रचता है।]
वेदे करमफल स्थावरो, त्रस कार्ययुत फल अनुभवे,
प्राणित्वथी अतिक्रान्त जे ते जीव वेदे ज्ञानने। ३९।