Panchastikay Sangrah (Hindi).

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
चेतकस्वभावेन प्रकृष्टतरवीर्यांतरायावसादितकार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपं कर्मफलमेव प्राधान्येन
चेतयंते। अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतक–स्वभावेन
मनाग्वीर्यांतरायक्षयोपशमासादितकार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपकर्मफलानुभवन–संवलितमपि
कार्यमेव प्राधान्येन चेतयंते। अन्यतरे
तु प्रक्षालितसकलमोहकलङ्केन समुच्छिन्न–
कृत्स्नज्ञानावरणतयात्यंतमुन्मुद्रितसमस्तानुभावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीर्यांतरायक्षयासादितानंत–
वीर्या अपि निर्जीर्णकर्मफलत्वादत्यंत–
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टीकाः– यह, चेतयितृत्वगुणकी व्याख्या है।
कोई चेतयिता अर्थात् आत्मा तो, जो अति प्रकृष्ट मोहसे मलिन है और जिसका प्रभाव
[शक्ति] अति प्रकृष्ट ज्ञानावरणसे मुँद गया है ऐसे चेतक–स्वभाव द्वारा सुखदुःखरूप ‘कर्मफल’ को
ही प्रधानतः चेतते हैं, क्योंकि उनका अति प्रकृष्ट वीर्यान्तरायसे कार्य करनेका [–कर्मचेतनारूप
परिणमित होनेका] सामर्थ्य नष्ट गया है।
दूसरे चेतयिता अर्थात् आत्मा, जो अति प्रकृष्ट मोहसे मलिन छे और जिसका प्रभाव प्रकृष्ट
ज्ञानावरणसे मुँद गया है ऐसे चेतकस्वभाव द्वारा – भले ही सुखदुःखरूप कर्मफलके अनुभवसे
मिश्रितरूपसेे भी – ‘कार्य’ को ही प्रधानतः चेतते हैं, क्योंकि उन्होंने अल्प वीर्यांतरायके क्षयोपशमसे
कार्य करनेका सामर्थ्य प्राप्त किया है।
और दूसरे चेतयिता अर्थात् आत्मा, जिसमेंसे सकल मोहकलंक धुल गया है तथा समस्त
ज्ञानावरणके विनाशके कारण जिसका समस्त प्रभाव अत्यन्त विकसित हो गया है ऐसे चेतकस्वभाव
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१। चेतयितृत्व = चेतयितापना; चेतनेवालापना ; चेतकपना।

२। कर्मचेतनावाले जीवको ज्ञानावरण ‘प्रकृष्ट’ होता है और कर्मफलचेतनावालेको ‘अति प्रकृष्ट’ होता है।

३। कार्य = [जीव द्वारा] किया जाता हो वह; इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्म। [जिन जीवोंको वीर्यका
किन्चत् विकास हुआ है उनको कर्मचेतनारूपसे परिणमित सामर्थ्य प्रगट हुआ है इसलिये वे मुख्यतः
कर्मचेतनारूपसे परिणमित होते हैं। वह कर्मचेतना कर्मफलचेतनासे मिश्रित होती है।]