कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः। सोऽपि द्विविधः–ज्ञानोपयोगो दर्शनो–पयोगश्च। तत्र विशेषग्राहि ज्ञानं, सामान्यग्राहि दर्शनम्। उपयोगश्च सर्वदा जीवादपृथग्भूत एव, एकास्तित्वनिर्वृत्तत्वादिति।। ४०।।
आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि।
कुमतिश्रुतविभङ्गानि च त्रीण्यपि ज्ञानैः संयुक्तानि।। ४१।।
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वास्तवमें दो प्रकारका [उपयोगः] उपयोग [जीवस्य] जीवको [सर्वकालम्] सर्व काल [अनन्यभूतं] अनन्यरूपसे [विजानीहि] जानो।
टीकाः– आत्मका चैतन्य–अनुविधायी [अर्थात् चैतन्यका अनुसरण करनेवाला] परिणाम सो उपयोग है। वह भी दोे प्रकारका है–ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। वहाँ, विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्यको ग्रहण करनेवाला दर्शन है [अर्थात् विशेष जिसमें प्रतिभासित हो वह ज्ञान है और सामान्य जिसमें प्रतिभासित हो वह दर्शन है]। और उपयोग सर्वदा जीवसे अपृथग्भूत ही है, क्योंकि एक अस्तित्वसे रचित है।। ४०।।
मनःपर्यय और केवल–[ज्ञानानि पञ्चभेदानि] इस प्रकार ज्ञानके पाँच भेद हैं; [कुमतिश्रुतविभङ्गानि च] और कुमति, कुश्रुत और विभंग–[त्रीणि अपि] यह तीन [अज्ञान] भी [ज्ञानैः] [पाँच] ज्ञानके साथ [संयुक्तानि] संयुक्त किये गये हैं। [इस प्रकार ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं।] -------------------------------------------------------------------------- अपृथग्भूत = अभिन्न। [उपयोग सदैव जीवसे अभिन्न ही है, क्योंकि वे एक अस्तित्वसे निष्पन्न है।