Panchastikay Sangrah (Hindi).

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
ज्ञानोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत्।
तत्राभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानं कुमतिज्ञानं कुश्रुत–ज्ञानं
विभङ्गज्ञानमिति नामाभिधानम्। आत्मा ह्यनंतसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्ध ज्ञानसामान्यात्मा। स
खल्वनादिज्ञानावरणकर्मावच्छन्नप्रदेशः सन्, यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रि–यानिन्द्रियावलम्बाच्च
मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदाभिनिबोधिकज्ञानम्, यत्तदा–
वरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलंबाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानम्,
यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदवधिज्ञानम्, यत्तदा–वरणक्षयोपशमादेव
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टीकाः– यह, ज्ञानोपयोगके भेदोंके नाम और स्वरूपका कथन है।
वहाँ, [१] आभिनिबोधिकज्ञान, [२] श्रुतज्ञान, [३] अवधिज्ञान, [४] मनःपर्ययज्ञान, [५]
केवलज्ञान, [६] कुमतिज्ञान, [७] कुश्रुतज्ञान और [८] विभंगज्ञान–इस प्रकार [ज्ञानोपयोगके
भेदोंके] नामका कथन है।
[अब उनके स्वरूपका कथन किया जाता हैः–] आत्मा वास्तवमें अनन्त, सर्व आत्मप्रदेशोंमें
व्यापक, विशुद्ध ज्ञानसामान्यस्वरूप है। वह [आत्मा] वास्तवमें अनादि ज्ञानावरणकर्मसे आच्छादित
प्रदेशवाला वर्तता हुआ, [१] उस प्रकारके [अर्थात् मतिज्ञानके] आवरणके क्षयोपशमसे और
इन्द्रिय–मनके अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यका
विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह
आभिनिबोधिकज्ञान है, [२] उस प्रकारके [अर्थात् श्रुतज्ञानके] आवरणके क्षयोपशमसे और मनके
अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह श्रुतज्ञान है, [३] उस
प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह
अवधिज्ञान है, [४] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही परमनोगत [–दूसरोंके मनके साथ
सम्बन्धवाले] मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह मनःपर्ययज्ञान है, [५]
समस्त आवरणके अत्यन्त क्षयसे, केवल ही [–आत्मा अकेला ही], मूर्त–अमूर्त द्रव्यका सकलरूपसे
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१। विकलरूपसे = अपूर्णरूपसे; अंशतः।

२। विशेषतः अवबोधन करना = जानना। [विशेष अवबोध अर्थात् विशेष प्रतिभास सो ज्ञान है।]