श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानमिति स्वरूपाभिधानम्।
इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम्।। ४१।।
आभिनिबोधिकज्ञान ही कुमतिज्ञान है, [७] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है,
[८] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका अवधिज्ञान ही विभंगज्ञान है। – इस प्रकार [ज्ञानोपयोगके
भेदोंके] स्वरूपका कथन है।
निश्चयनयसे अखण्ड–एक–विशुद्धज्ञानमय ऐसा यह आत्मा व्यवहारनयसे संसारावस्थामें कर्मावृत्त
विकल्परूपसे जो जानता है वह मतिज्ञान है। वह तीन प्रकारका हैः उपलब्धिरूप, भावनारूप और
उपयोगरूप। मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जनित अर्थग्रहणशक्ति [–पदार्थको जाननेकी शक्ति] वह
उपलब्धि है, जाने हुए पदार्थका पुनः पुनः चिंतन वह भावना है और ‘यह काला है,’ ‘यह पीला है
’ इत्यादिरूपसे अर्थग्रहणव्यापार [–पदार्थको जाननेका व्यापार] वह उपयोग है। उसी प्रकार वह
[मतिज्ञान] अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप भेदों द्वारा अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि,
पदानुसारीबुद्धि तथा संभिन्नश्रोतृताबुद्धि ऐसे भेदों द्वारा चार प्रकारका है। [यहाँ, ऐसा तात्पर्य ग्रहण
करना चाहिये कि निर्विकार शुद्ध अनुभूतिके प्रति अभिमुख जो मतिज्ञान वही उपादेयभूत अनन्त
सुखका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है, उसके साधनभूत बहिरंग मतिज्ञान तो व्यवहारसे उपादेय
है।]