Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 43.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
८१
नावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम्, यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुर्वर्जितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्ता–
मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं
सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम्, यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं
सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम्।। ४२।।
ण वियप्पदि णाणादो णाणी णाणाणि होंति णेगाणि।
तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियत्ति णाणीहिं।। ४३।।
न विकल्प्यते ज्ञानात् ज्ञानी ज्ञानानि भवंत्यनेकानि।
तस्मात्तु विश्वरूपं भणितं द्रव्यमिति ज्ञानिभिः।। ४३।।
एकस्यात्मनोऽनेकज्ञानात्मकत्वसमर्थनमेतत्।
न तावज्ज्ञानी ज्ञानात्पृथग्भवति, द्वयोरप्येकास्तित्वनिर्वृत्तत्वेनैकद्रव्यत्वात्,
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वह चक्षुदर्शन है, [२] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे तथा चक्षुके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रयोंंं
और मनके अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यको विकरूपसे सामान्यतः अवबोधन करता है वह अचक्षुदर्शन
हैे, [३] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही मूर्त द्रव्यको विकरूपसे सामान्यतः अवबोधन करता
है वह अवधिदर्शन है, [४] समस्त आवरणके अत्यन्त क्षयसे, केवल ही [–आत्मा अकेला ही],
मूर्त–अमूर्त द्रव्यको सकलरूपसेे सामान्यतः अवबोधन करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। –इस
प्रकार [दर्शनोपयोगके भेदोंके] स्वरूपका कथन है।। ४२।।
गाथा ४३
अन्वयार्थः– [ज्ञानात्] ज्ञानसे [ज्ञानी न विकल्प्यते] ज्ञानीका [–आत्माका] भेद नहीं किया
जाता; [ज्ञानानि अनेकानि भवंति] तथापि ज्ञान अनेक है। [तस्मात् तु] इसलिये तो [ज्ञानिभिः]
ज्ञानियोंने [द्रव्यं] द्रव्यको [विश्वरूपम् इति भणितम्] विश्वरूप [–अनेकरूप] कहा है।
टीकाः– एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक होनेका यह समर्थन है।
प्रथम तो ज्ञानी [–आत्मा] ज्ञानसे पृथक् नहीं है; क्योंकि दोनोें एक अस्तित्वसे रचित होनेसे
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छे ज्ञानथी नहि भिन्न ज्ञानी, ज्ञान तोय अनेक छे;
ते कारणे तो विश्वरूप कह्युं दरवने ज्ञानीए। ४३।