व्यपदेशं पृथक्त्वप्रकारेण कुरुते, यथा च ज्ञानमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तस्याभिन्न–
संस्थानमभिन्नसंस्थानस्याभिन्नसंख्यमभिन्नसंख्यस्याभिन्नविषयलब्धवृत्तिकमभिन्नविषयलब्धवृत्तिकस्य
पुरुषस्य ज्ञानीति व्यपदेशमेकत्वप्रकारेण कुरुते; तथान्यत्रापि। यत्र द्रव्यस्य भेदेन व्यपदेशादिः तत्र
पृथक्त्वं, यत्राभेदेन तत्रैकत्वमिति।। ४७।।
दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।। ४८।।
द्वयोरचेतनत्वं प्रसजति सम्यग् जिनावमतम्।। ४८।।
संख्यावाले और [४] भिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको ‘धनी’ ऐसा व्यपदेश पृथक्त्वप्रकारसे करता
हैं, तथा जिस प्रकार [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न संस्थानवाला, [३] अभिन्न
संख्यावाला और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसा ज्ञान [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न
संस्थानवाले, [३] अभिन्न संख्यावाले और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको ‘ज्ञानी’ ऐसा
व्यपदेश एकत्वप्रकारसे करता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये। जहाँ द्रव्यके भेदसे
व्यपदेश आदि हों वहाँ पृथक्त्व है, जहाँ [द्रव्यके] अभेदसे [व्यपदेश आदि] हों वहाँ एकत्व है।।
४७।।
[अचेतनत्वं प्रसजति] अचेतनपनेका प्रसंग आये– [सम्यग् जिनावमतम्] जो कि जिनोंको सम्यक्
प्रकारसे असंमत है।
बन्ने अचेतनता लहे–जिनदेवने नहि मान्य जे। ४८।