Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 47.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जानातीत्यनन्यत्वेऽपि। यथा प्रांशोर्देवदत्तस्य प्रांशुर्गौरित्यन्यत्वे संस्थानं, तथा प्रांशोर्वृक्षस्य
प्रांशुः शाखाभरो मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि। यथैकस्य देवदत्तस्य दश गाव
जानातीत्यनन्यत्वेऽपि। यथा प्रांशोर्देवदत्तस्य प्रांशुर्गौरित्यन्यत्वे संस्थानं, तथा प्रांशोर्वृक्षस्य प्रांशुः
शाखाभरो मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि। यथैकस्य देवदत्तस्य दश गाव इत्यन्यत्वे संख्या,
तथैकस्य वृक्षस्य दश शाखाः एकस्य द्रव्यस्यानंता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि। यथा गोष्ठे गाव इत्यन्यत्वे
विषयः, तथा वृक्षे शाखाः द्रव्ये गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि। ततो न व्यपदेशादयो द्रव्यगुणानां वस्तुत्वेन भेदं
साधयंतीति।। ४६।।
णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाणिणं च दुविधेहिं।
भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू।। ४७।।
ज्ञानं धनं च करोति धनिनं यथा ज्ञानिनं च द्विविधाभ्याम्।
भणंति तथा पृथक्त्वमेकत्वं चापि तत्त्वज्ञाः।। ४७।।
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गायें, ऐसे अन्यपनेमें संख्या होती है, उसी प्रकार ‘एक वृक्षकी दस शाखायें’, ‘एक द्रव्यके अनन्त
गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [संख्या] होती है। जिस प्रकार ‘बाड़ेे में गायें’ ऐसे अन्यपनेमें विषय [–
आधार] होता है, उसी प्रकार ‘वृक्षमें शाखायें’, ‘द्रव्यमें गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [विषय] होता
है। इसलिये [ऐसा समझना चाहिये कि] व्यपदेश आदि, द्रव्य–गुणोंमें वस्तुरूपसे भेद सिद्ध नहीं
करते।। ४६।।
गाथा ४७
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार [धनं] धन [च] और [ज्ञानं] ज्ञान [धनिनं] [पुरुषको]
‘धनी’ [च] और [ज्ञानिनं] ‘ज्ञानी’ [करोति] करते हैं– [द्विविधाभ्याम् भणंति] ऐसे दो प्रकारसे
कहा जाता है, [तथा] उसी प्रकार [तत्त्वज्ञाः] तत्त्वज्ञ [पृथक्त्वम्] पृथक्त्व [च अपि] तथा
[एकत्वम्] एकत्वको कहते हैं।
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धनथी ‘धनी’ ने ज्ञानथी ‘ज्ञानी’–द्विधा व्यपदेश छे,
ते रीत तत्त्वज्ञो कहे एकत्व तेम पृथक्त्वने। ४७।