कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
८५
ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा।
ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते।। ४६।।
व्यपदेशाः संस्थानानि संख्या विषयाश्च भवन्ति ते बहुकाः।
ते तेषामनन्यत्वे अन्यत्वे चापि विद्यंते।। ४६।।
व्यपदेशादीनामेकांतेन द्रव्यगुणान्यत्वनिबंधनत्वमत्र प्रत्याख्यातम्।
यथा देवदत्तस्य गौरित्यन्यत्वे षष्ठीव्यपदेशः, तथा वृक्षस्य शाखा द्रव्यस्य गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि।
यथा देवदत्तः फलमङ्कुशेन धनदत्ताय वृक्षाद्वाटिकायामवचिनोतीत्यन्यत्वे कारकव्यपदेशः, तथा मृत्तिका
घटभावं स्वयं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतीत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मन आत्मनि
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ४६
अन्वयार्थः– [व्यपदेशाः] व्यपदेश, [संस्थानानि] संस्थान, [संख्याः] संख्याएँ [च] और
[विषयाः] विषय [ते बहुकाः भवन्ति] अनेक होते हैं। [ते] वे [व्यपदेश आदि], [तेषाम्] द्रव्य–
गुणोंके [अन्यत्वे] अन्यपनेमें [अनन्यत्वे च अपि] तथा अनन्यपनेमें भी [विद्यंते] हो सकते हैं।
टीकाः– यहाँ व्यपदेश आदि एकान्तसे द्रव्य–गुणोंके अन्यपनेका कारण होनेका खण्डन किया
है।
जिस प्रकार ‘देवदत्तकी गाय’ इस प्रकार अन्यपनेमें षष्ठीव्यपदेश [–छठवीं विभक्तिका कथन]
होता हैे, उसी प्रकार ‘वृक्षकी शाखा,’ ‘द्रव्यके गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [षष्ठीव्यपदेश] होता हैे।
जिस प्रकार‘देवदत्त फलको अंकुश द्वारा धनदत्तके लियेे वृक्ष परसे बगीचेमें तोड़ता है’ ऐसे अन्यपनेमें
कारकव्यपदेश होता हैे, उसी प्रकार ‘मिट्टी स्वयं घटभावको [–घड़ारूप परिणामको] अपने द्वारा
अपने लिये अपनेमेंसे अपनेमें करती है’, ‘आत्मा आत्मको आत्मा द्वारा आत्माके लिये आत्मामेंसे
आत्मामें जानता है’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [कारकव्यपदेश] होता हैे। जिस प्रकार ‘ऊँचे देवदत्तकी
ऊँची गाय’ ऐसा अन्यपनेमें संस्थान होता हैे, उसी प्रकार ‘विशाल वृक्षका विशाल शाखासमुदाय’,
मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [संस्थान] होता हैे। जिस प्रकार ‘एक देवदत्तकी दस
--------------------------------------------------------------------------
व्यपदेश = कथन; अभिधान। [इस गाथामें ऐसा समझाया है कि–जहाँ भेद हो वहीं व्यपदेश आदि घटित हों
ऐसा कुछ नहीं है; जहाँ अभेद हो वहाँ भी वे घटित होते हैं। इसलिये द्रव्य–गुणोंमें जो व्यपदेश आदि होते हैं वे
कहीं एकान्तसे द्रव्य–गुणोंके भेदको सिद्ध नहीं करते।]
व्यपदेश ने संस्थान, संख्या, विषय बहु ये होय छे;
ते तेमना अन्यत्व तेम अनन्यतामां पण घटे। ४६।