Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 49.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
८९
ण हि सो समवायादो अत्थंतरिदो दु णाणदो णाणी।
अण्णाणीति च वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि।। ४९।।
न हि सः समवायादार्थंतरितस्तु ज्ञानतो ज्ञानी।
अज्ञानीति च वचनमेकत्वप्रसाधकं भवति।। ४९।।
ज्ञानज्ञानिनोः समवायसंबंधनिरासोऽयम्।
न खलुज्ञानादर्थान्तरभूतः पुरुषो ज्ञानसमवायात् ज्ञानी भवतीत्युपपन्नम्। स खलु
ज्ञानसमवायात्पूर्वं किं ज्ञानी किमज्ञानी? यदि ज्ञानी तदा ज्ञानसमवायो निष्फलः। अथाज्ञानी तदा
किमज्ञानसमवायात्, किमज्ञानेन सहैकत्वात्? न तावदज्ञानसमवायात्; अज्ञानिनो ह्यज्ञानसमवायो
निष्फलः, ज्ञानित्वं तु ज्ञानसमवायाभावान्नास्त्येव। ततोऽज्ञानीति वचनमज्ञानेन सहैकत्वमवश्यं
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गाथा ४९
अन्वयार्थः– [ज्ञानतः अर्थांतरितः तु] ज्ञानसे अर्थान्तरभूत [सः] ऐसा वह [–आत्मा]
[समवायात्] समवायसे [ज्ञानी] ज्ञानी होता है [न हि] ऐसा वास्तवमें नहीं है। [अज्ञानी]
‘अज्ञानी’ [इति च वचनम्] ऐसा वचन [एकत्वप्रसाधकं भवति] [गुण–गुणीके] एकत्वको सिद्ध
करता है।
टीकाः– यह, ज्ञान और ज्ञानीको समवायसम्बन्ध होनेका निराकरण [खण्डन] है।

ज्ञानसे अर्थान्तरभूत आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है ऐसा मानना वास्तवमें योग्य नहीं है।
[आत्माको ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होना माना जाये तो हम पूछते हैं कि] वह [–आत्मा] ज्ञानका
समवाय होनेसे पहले वास्तवमें ज्ञानी है कि अज्ञानी? यदि ज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो ज्ञानका
समवाय निष्फल है। अब यदि अज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो [पूछते हैं कि] अज्ञानके समवायसे
अज्ञानी है कि अज्ञानके साथ एकत्वसे अज्ञानी है? प्रथम, अज्ञानके समवायसे अज्ञानी हो नहीं
सकता; क्योंकि अज्ञानीको अज्ञानका समवाय निष्फल है और ज्ञानीपना तो ज्ञानके समवायका अभाव
होनेसे है ही नहींं। इसलिये ‘अज्ञानी’ ऐसा वचन अज्ञानके साथ एकत्वको अवश्य सिद्ध करता ही
है। और इस प्रकार अज्ञानके साथ एकत्व सिद्ध होनेसे ज्ञानके साथ भी एकत्व अवश्य सिद्ध होता
है।
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रे! जीव ज्ञानविभिन्न नहि समवायथी ज्ञानी बने;
‘अज्ञानी’ एवुं वचन ते एकत्वनी सिद्धि करे। ४९।