अण्णाणीति च वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि।। ४९।।
अज्ञानीति च वचनमेकत्वप्रसाधकं भवति।। ४९।।
किमज्ञानसमवायात्, किमज्ञानेन सहैकत्वात्? न तावदज्ञानसमवायात्; अज्ञानिनो ह्यज्ञानसमवायो
निष्फलः, ज्ञानित्वं तु ज्ञानसमवायाभावान्नास्त्येव। ततोऽज्ञानीति वचनमज्ञानेन सहैकत्वमवश्यं
‘अज्ञानी’ [इति च वचनम्] ऐसा वचन [एकत्वप्रसाधकं भवति] [गुण–गुणीके] एकत्वको सिद्ध
करता है।
ज्ञानसे अर्थान्तरभूत आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है ऐसा मानना वास्तवमें योग्य नहीं है।
[आत्माको ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होना माना जाये तो हम पूछते हैं कि] वह [–आत्मा] ज्ञानका
समवाय होनेसे पहले वास्तवमें ज्ञानी है कि अज्ञानी? यदि ज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो ज्ञानका
समवाय निष्फल है। अब यदि अज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो [पूछते हैं कि] अज्ञानके समवायसे
अज्ञानी है कि अज्ञानके साथ एकत्वसे अज्ञानी है? प्रथम, अज्ञानके समवायसे अज्ञानी हो नहीं
सकता; क्योंकि अज्ञानीको अज्ञानका समवाय निष्फल है और ज्ञानीपना तो ज्ञानके समवायका अभाव
होनेसे है ही नहींं। इसलिये ‘अज्ञानी’ ऐसा वचन अज्ञानके साथ एकत्वको अवश्य सिद्ध करता ही
है। और इस प्रकार अज्ञानके साथ एकत्व सिद्ध होनेसे ज्ञानके साथ भी एकत्व अवश्य सिद्ध होता
है।
‘अज्ञानी’ एवुं वचन ते एकत्वनी सिद्धि करे। ४९।