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साधयत्येव। सिद्धे चैवमज्ञानेन सहैकत्वे ज्ञानेनापि सहैकत्वमवश्यं सिध्यतीति।। ४९।।
तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिद्दिठ्ठा।। ५०।।
तस्माद्र्रव्यगुणानां अयुता सिद्धिरिति निर्दिष्टा।। ५०।।
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भावार्थः– आत्माको और ज्ञानको एकत्व है ऐसा यहाँ युक्तिसे समझाया है।
प्रश्नः– छद्मस्थदशामें जीवको मात्र अल्पज्ञान ही होता है और केवलीदशामें तो परिपूर्ण ज्ञान– केवलज्ञान होता है; इसलिये वहाँ तो केवलीभगवानको ज्ञानका समवाय [–केवलज्ञानका संयोग] हुआ न?
उत्तरः– नहीं, ऐसा नहीं है। जीवको और ज्ञानगुणको सदैव एकत्व है, अभिन्नता है। छद्मस्थदशामें भी उस अभिन्न ज्ञानगुणमें शक्तिरूपसे केवलज्ञान होता है। केवलीदशामें, उस अभिन्न ज्ञानगुणमें शक्तिरूपसे स्थित केवलज्ञान व्यक्त होता है; केवलज्ञान कहीं बाहरसे आकर केवलीभगवानके आत्माके साथ समवायको प्राप्त होता हो ऐसा नहीं है। छद्मस्थदशामें और केवलीदशामें जो ज्ञानका अन्तर दिखाई देता है वह मात्र शक्ति–व्यक्तिरूप अन्तर समझना चाहिये।। ४९।।
अन्वयार्थः– [समवर्तित्वं समवायः] समवर्तीपना वह समवाय है; [अपृथग्भूतत्वम्] वही, अपृथक्पना [च] और [अयुतसिद्धत्वम्] अयुतसिद्धपना है। [तस्मात्] इसलिये [द्रव्यगुणानाम्] द्रव्य और गुणोंकी [अयुता सिद्धिः इति] अयुतसिद्धि [निर्दिष्टा] [जिनोंने] कही है। --------------------------------------------------------------------------
ते कारणे भाखी अयुतसिद्धि गुणो ने द्रव्यने। ५०।