Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 51-52.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
९१
द्रव्यगुणानामेकास्तित्वनिर्वृत्तित्वादनादिरनिधना सहवृत्तिर्हि समवर्तित्वम्; स एव समवायो
जैनानाम्; तदेव संज्ञादिभ्यो भेदेऽपि वस्तुत्वेनाभेदादपृथग्भूतत्वम्; तदेव युतसिद्धि–
निबंधनस्यास्तित्वान्तरस्याभावादयुतसिद्धत्वम्। ततो द्रव्यगुणानां समवर्तित्वलक्षणसमवायभाजाम–
युतसिद्धिरेव, न पृथग्भूतत्वमिति।। ५०।।
वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा विसेसेहिं।
दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा
होंति।। ५१।।
दंसणणाणाणि तहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि।
ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो
सभावादो।। ५२।।
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टीकाः– यह, समवायमें पदार्थान्तरपना होनेका निराकरण [खण्डन] है।

द्रव्य और गुण एक अस्तित्वसे रचित हैं उनकी जो अनादि–अनन्त सहवृत्ति [–एक साथ
रहना] वह वास्तवमें समवर्तीपना है; वही, जैनोंके मतमें समवाय है; वही, संज्ञादि भेद होने पर भी
[–द्रव्य और गुणोंको संज्ञा– लक्षण–प्रयोजन आदिकी अपेक्षासे भेद होने पर भी] वस्तुरूपसे अभेद
होनेसे अपृथक्पना है; वही, युतसिद्धिके कारणभूत
अस्तित्वान्तरका अभाव होनेसे अयुतसिद्धपना है।
इसलिये समवर्तित्वस्वरूप समवायवाले द्रव्य और गुणोंको अयुतसिद्धि ही है, पृथक्पना नहीं है।।
५०।।
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१। अस्तित्वान्तर = भिन्न अस्तित्व। [युतसिद्धिका कारण भिन्न–भिन्न अस्तित्व है। लकड़ी और लकडीवालेकी भाँति
गुण और द्रव्यके अस्तित्व कभी भिन्न न होनेसे उन्हें युतसिद्धपना नहीं हो सकता।]

२। समवायका स्वरूप समवर्तीपना अर्थात् अनादि–अनन्त सहवृत्ति है। द्रव्य और गुणोेंको ऐसा समवाय [अनादि–
अनन्त तादात्म्यमय सहवृत्ति] होनेसे उन्हें अयुतसिद्धि है, कभी भी पृथक्पना नहीं है।

परमाणुमां प्ररूपित वरण, रस, गंध तेम ज स्पर्श जे,
अणुथी अभिन्न रही विशेष वडे प्रकाशे भेदने; ५१।
त्यम ज्ञानदर्शन जीवनियत अनन्य रहीने जीवथी,
अन्यत्वना कर्ता बने व्यपदेशथी–न स्वभावथी। ५२।