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द्रव्याच्च अनन्याः अन्यत्वप्रकाशका भवन्ति।। ५१।।
दर्शनज्ञाने तथा जीवनिबद्धे अनन्यभूते।
व्यपदेशतः पृथक्त्वं कुरुते हि नो स्वभावात्।। ५२।।
द्रष्टांतदार्ष्टान्तिकार्थपुरस्सरो द्रव्यगुणानामनर्थांन्तरत्वव्याख्योपसंहारोऽयम्।
वर्णरसगंधस्पर्शा हि परमाणोः प्ररूप्यंते; ते च परमाणोरविभक्तप्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनैर्विशेषैरन्यत्वं प्रकाशयन्ति। एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि संबद्धे आत्म– द्रव्यादविभक्तप्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनैर्विशेषैः पृथक्त्वमासादयतः, स्वभावतस्तु नित्यमपृथक्त्वमेव बिभ्रतः।। ५१–५२।।
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अन्वयार्थः– [परमाणुप्ररूपिताः] परमाणुमें प्ररूपित किये जाने वाले ऐसे [वर्णरसगंधस्पर्शाः] वर्ण–रस–गंध–स्पर्श [द्रव्यात् अनन्याः च] द्रव्यसे अनन्य वर्तते हुए [विशेषैः] [व्यपदेशके कारणभूत] विशेषों द्वारा [अन्यत्वप्रकाशकाः भवन्ति] अन्यत्वको प्रकाशित करनेवाले होते हैं [– स्वभावसे अन्यरूप नहीं है]; [तथा] इस प्रकार [जीवनिबद्धे] जीवमें सम्बद्ध ऐसे [दर्शनज्ञाने] दर्शन–ज्ञान [अनन्यभूते] [जीवद्रव्यसे] अनन्य वर्तते हुए [व्यपदेशतः] व्यपदेश द्वारा [पृथक्त्वं कुरुते हि] पृथक्त्व करते हैं। [नो स्वभावात्] स्वभावसे नहीं।
टीकाः– द्रष्टान्तरूप और द्रार्ष्टान्तरूप पदार्थपूर्वक, द्रव्य तथा गुणोंके अभिन्न–पदार्थपनेके व्याख्यानका यह उपसंहार है।
वर्ण–रस–गंध–स्पर्श वास्तवमें परमाणुमें प्ररूपित किये जाते हैं; वे परमाणुसे अभिन्न प्रदेशवाले होनेके कारण अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेशके कारणभूत विशेषों द्वारा अन्यत्वको प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार आत्मामें सम्बद्ध ज्ञान–दर्शन भी आत्मद्रव्यसे अभिन्न प्रदेशवाले होनेके कारण अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेशके कारणभूत विशेषों द्वारा पृथक्पनेको प्राप्त होते हैं, परन्तु स्वभावसे सदैव अपृथक्पने को ही धारण करते हैं।। ५१–५२।।
इस प्रकार उपयोगगुणका व्याख्यान समाप्त हुआ। -------------------------------------------------------------------------- द्रार्ष्टान्त = द्रष्टान्त द्वारा समझाान हो वह बात; उपमेय। [यहाँ परमाणु और वर्णादिक द्रष्टान्तरूप पदार्थ हैं तथा