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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जीवा हि सहजचैतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनानादिनिधनाः। त एवौदयिक–
क्षायोपशमिकौपशमिकभावैः सादिसनिधनाः। त एव क्षायिकभावेन साद्यनिधनाः। न च सादि–
त्वात्सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याशङ्कयम्। स खलूपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव
जीवस्य; सद्भावेन चानंता एव जीवाः प्रतिज्ञायंते। न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्य–लक्षणैकभावानां
सादिसनिधनानि साद्यनिधनानि भावांतराणि नोपपद्यंत इति वक्तव्यम्; ते खल्वनादिकर्ममलीमसाः
पंकसंपृक्ततोयवत्तदाकारेण परिणतत्वात्पञ्चप्रधानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयंत इति।। ५३।।
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जीव वास्तवमें सहजचैतन्यलक्षण पारिणामिक भावसे अनादि–अनन्त है। वे ही औदयिक,
क्षायोपशमिक और औपशमिक भावोंसे सादि–सान्त हैं। वे ही क्षायिक भावसे सादि–अनन्त हैं।
‘क्षायिक भाव सादि होनेसे वह सांत होगा’ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है। [कारण इस
प्रकार हैः–] वह वास्तवमें उपाधिकी निवृत्ति होने पर प्रवर्तता हुआ, सिद्धभावकी भाँति, जीवका
सद्भाव ही है [अर्थात् कर्मोपाधिके क्षयमें प्रवर्तता है इसलिये क्षायिक भाव जीवका सद्भाव ही है];
और सद्भावसे तो जीव अनन्त ही स्वीकार किये जाते हैं। [इसलिये क्षायिक भावसे जीव अनन्त ही
अर्थात् विनाशरहित ही है।]
पुनश्च, ‘अनादि–अनन्त सहजचैतन्यलक्षण एक भाववाले उन्हें सादि–सांत और सादि–अनन्त
भावान्तर घटित नहीं होते [अर्थात् जीवोंको एक पारिणामिक भावके अतिरिक्त अन्य भाव घटित नहीं
होते]’ ऐसा कहना योग्य नहीं है; [क्योंकि] वे वास्तवमें अनादि कर्मसे मलिन वर्तते हुए कादवसे
१संपृक्त जलकी भाँति तदाकाररूप परिणत होनेके कारण, पाँच प्रधान २गुणोंसे प्रधानतावाले ही
अनुभवमें आते हैं।। ५३।।
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जीवके पारिणामिक भावका लक्षण अर्थात् स्वरूप सहज–चैतन्य है। यह पारिणामिक भाव अनादि अनन्त
होनेसे इस भावकी अपेक्षासे जीव अनादि अनन्त है।
१। कादवसे संपृक्त = कादवका सम्पर्क प्राप्त; कादवके संसर्गवाला। [यद्यपि जीव द्रव्यस्वभावसे शुद्ध है तथापि
व्यवहारसे अनादि कर्मबंधनके वश, कादववाले जलकी भाँति, औदयिक आदि भावरूप परिणत हैं।]
२। औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन पाँच भावोंको जीवके पाँच प्रधान गुण
कहा गया है।