कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो।
इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं।। ५४।।
एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य भवत्युत्पादः।
इति जिनवरैर्भणितमन्योऽन्यविरुद्धमविरुद्धम्।। ५४।।
जीवस्य भाववशात्सादिसनिधनत्वे साद्यनिधनत्वे च विरोधपरिहारोऽयम्।
एवं हि पञ्चभिर्भावैः स्वयं परिणममानस्यास्य जीवस्य कदाचिदौदयिकेनैकेन मनुष्यत्वादिलक्षणेन
भावेन सतो विनाशस्तथापरेणौदयिकेनैव देवत्वादिलक्षणेन भावेन असत उत्पादो भवत्येव। एतच्च ‘न
सतो विनाशो नासत उत्पाद’ इति पूर्वोक्तसूत्रेण सह विरुद्धमपि न विरुद्धम्; यतो जीवस्य
द्रव्यार्थिकनयादेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पादः, तस्यैव पर्यायार्थिकनयादेशेन सत्प्रणाशोऽसदुत्पादश्च।
न चैतदनुपपन्नम्, नित्ये जले कल्लोलानाम–नित्यत्वदर्शनादिति।। ५४।।
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गाथा ५४
अन्वयार्थः– [एवं] इस प्रकार [जीवस्य] जीवको [सतः विनाशः] सत्का विनाश और
[असतः उत्पादः] असत्का उत्पाद [भवति] होता है– [इति] ऐसा [जिनवरैः भणितम्] जिनवरोंने
कहा है, [अन्योन्यविरुद्धम्] जो कि अन्योन्य विरुद्ध [१९ वीं गाथाके कथनके साथ विरोधवाला]
तथापि [अविरुद्धम्] अविरुद्ध है।
टीकाः– यह, जीवको भाववशात् [औदयिक आदि भावोंके कारण] सादि–सांतपना और
अनादि–अनन्तपना होनेमें विरोधका परिहार है।
इस प्रकार वास्तवमें पाँच भावरूपसे स्वयं परिणमित होनेवाले इस जीवको कदाचित् औदयिक
ऐसे एक मनुष्यत्वादिस्वरूप भावकी अपेक्षासे सत्का विनाश और औदयिक ही ऐसे दूसरे
देवत्वादिस्वरूप भावकी अपेक्षासे असत्का उत्पाद होता ही है। और यह [कथन] ‘सत्का विनाश
नहीं है तथा असत्का उत्पाद नहीं है’ ऐसे पूर्वोक्त सूत्रके [–१९वीं गाथाके] साथ विरोधवाला होने
पर भी [वास्तवमें] विरोधवाला नहीं है; क्योंकि जीवको द्रव्यार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश नहीं
है और असत्का उत्पाद नहीं है तथा उसीको पर्यायार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश है और
असत्का उत्पाद है। और यह १अनुपपन्न नहीं है, क्योंकि नित्य ऐसे जलमें कल्लोलोंका अनित्यपना
दिखाई देता है।
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यहाँ ‘सादि’के बदले ‘अनादि’ होना चाहिये ऐसा लगता है; इसलिये गुजरातीमें ‘अनादि’ ऐसा अनुवाद
किया है।
१।अनुपपन्न = अयुक्त; असंगत; अघटित; न हो सके ऐसा।
ए रीत सत्–व्यय ने असत्–उत्पाद जीवने होय छे
–भाख्युं जिने, जे पूर्व–अपर विरुद्ध पण अविरुद्ध छे। ५४।