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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
णेरइयतिरियमणुआ देवा इदि णामसंजुदा पयडी।
कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं।। ५५।।
नारकतिर्यङ्मनुष्या देवा इति नामसंयुताः प्रकृतयः।
कुर्वन्ति सतो नाशमसतो भावस्योत्पादम्।। ५५।।
जीवस्य सदसद्भावोच्छित्त्युत्पत्तिनिमित्तोपाधिप्रतिपादनमेतत्।
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भावार्थः– ५३ वीं गाथामें जीवको सादि–सान्तपना तथा अनादि–अनन्तपना कहा गया है। वहाँ
प्रश्न सम्भव है कि–सादि–सांतपना और अनादि–अनंतपना परस्पर विरुद्ध है; परस्पर विरुद्ध भाव
एकसाथ जीवको कैसे घटित होते हैं? उसका समाधान इस प्रकार हैः जीव द्रव्य–पर्यायात्मक वस्तु
है। उसे सादि–सान्तपना और अनादि–अनन्तपना दोनों एक ही अपेक्षासे नहीं कहे गये हैं, भिन्न–
भिन्न अपेक्षासे कहे गये हैं; सादि–सान्तपना कहा गया है वह पर्याय–अपेक्षासे है और अनादि–
अनन्तपना द्रव्य–अपेक्षासे है। इसलिये इस प्रकार जीवको सादि–सान्तपना तथा अनादि–अनन्तपना
एकसाथ बराबर घटित होता है।
[यहाँ यद्यपि जीवको अनादि–अनन्त तथा सादि–सान्त कहा गया है, तथापि ऐसा तात्पर्य
ग्रहण करना चाहिये कि पर्यायार्थिकनयके विषयभूत सादि–सान्त जीवका आश्रय करनेयोग्य नहीं है
किन्तु द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत ऐसा जो अनादि–अनन्त, टंकोत्कीर्णज्ञायकस्वभावी, निर्विकार,
नित्यानन्दस्वरूप जीवद्रव्य उसीका आश्रय करने योग्य है]।। ५४।।
गाथा ५५
अन्वयार्थः– [नारकतिर्यंङ्मनुष्याः देवाः] नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव [इति नामसंयुताः]
ऐसे नामोंवाली [प्रकृतयः] [नामकर्मकी] प्रकृतियाँ [सतः नाशम्] सत् भावका नाश और [असतः
भावस्य उत्पादम्] असत् भावका उत्पाद [कुर्वन्ति] करती हैं।
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तिर्यंच–नारक–देव–मानव नामनी छे प्रकृति जे,
ते व्यय करे सत् भावनो, उत्पाद असत तणो करे। ५५।