सदुच्छेदमसदुत्पत्तिं चाननुभवतः क्रमेणोदीयमानाः नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवनामप्रकृतयः
सदुच्छेदमसदुत्पादं च कुर्वंतीति।। ५५।।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा।। ५६।।
युक्तास्ते जीवगुणा बहुषु चार्थेषु विस्तीर्णाः।। ५६।।
जिस प्रकार समुद्ररूपसे असत्के उत्पाद और सत्के उच्छेदका अनुभव न करनेवाले ऐसे
उच्छेद करती हैं [अर्थात् अविद्यमान तरंगके उत्पादमें और विद्यमान तरंगके नाशमें निमित्त बनती
है], उसी प्रकार जीवरूपसे सत्के उच्छेद और असत्के उत्पाद अनुभव न करनेवाले ऐसे जीवको
क्रमशः उदयको प्राप्त होने वाली नारक–तिर्यंच–मनुष्य–देव नामकी [नामकर्मकी] प्रकृतियाँ
[भावोंसम्बन्धी, पर्यायोंसम्बन्धी] सत्का उच्छेद तथा असत्का उत्पाद करती हैं [अर्थात् विद्यमान
पर्यायके नाशमें और अविद्यमान पर्यायके उत्पादमें निमित्त बनती हैं]।। ५५।।
[जीवगुणाः] [पाँच] जीवगुण [–जीवके भाव] हैं; [च] और [बहुषु अर्थेषु विस्तीर्णाः] उन्हें
अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है।
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे। ५६।