कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
यथा हि जलराशेर्जलराशित्वेनासदुत्पादं सदुच्छेदं चाननुभवतश्चतुर्भ्यः ककुब्विभागेभ्यः क्रमेण वहमानाः पवमानाः कल्लोलानामसदुत्पादं सदुच्छेदं च कुर्वन्ति, तथा जीवस्यापि जीवत्वेन सदुच्छेदमसदुत्पत्तिं चाननुभवतः क्रमेणोदीयमानाः नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवनामप्रकृतयः सदुच्छेदमसदुत्पादं च कुर्वंतीति।। ५५।।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा।। ५६।।
युक्तास्ते जीवगुणा बहुषु चार्थेषु विस्तीर्णाः।। ५६।।
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टीकाः– जीवको सत् भावके उच्छेद और असत् भावके उत्पादमें निमित्तभूत उपाधिका यह प्रतिपादन है।
जिस प्रकार समुद्ररूपसे असत्के उत्पाद और सत्के उच्छेदका अनुभव न करनेवाले ऐसे समुद्रको चारों दिशाओंमेंसे क्रमशः बहती हुई हवाएँ कल्लोलोंसम्बन्धी असत्का उत्पाद और सत्का उच्छेद करती हैं [अर्थात् अविद्यमान तरंगके उत्पादमें और विद्यमान तरंगके नाशमें निमित्त बनती है], उसी प्रकार जीवरूपसे सत्के उच्छेद और असत्के उत्पाद अनुभव न करनेवाले ऐसे जीवको क्रमशः उदयको प्राप्त होने वाली नारक–तिर्यंच–मनुष्य–देव नामकी [नामकर्मकी] प्रकृतियाँ [भावोंसम्बन्धी, पर्यायोंसम्बन्धी] सत्का उच्छेद तथा असत्का उत्पाद करती हैं [अर्थात् विद्यमान पर्यायके नाशमें और अविद्यमान पर्यायके उत्पादमें निमित्त बनती हैं]।। ५५।।
[द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां] क्षयोपशमसे युक्त [च] और [परिणामेन युक्ताः] परिणामसे युक्त–[ते] ऐसे [जीवगुणाः] [पाँच] जीवगुण [–जीवके भाव] हैं; [च] और [बहुषु अर्थेषु विस्तीर्णाः] उन्हें अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है। --------------------------------------------------------------------------
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे। ५६।