Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 56.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
९७
यथा हि जलराशेर्जलराशित्वेनासदुत्पादं सदुच्छेदं चाननुभवतश्चतुर्भ्यः ककुब्विभागेभ्यः क्रमेण
वहमानाः पवमानाः कल्लोलानामसदुत्पादं सदुच्छेदं च कुर्वन्ति, तथा जीवस्यापि जीवत्वेन
सदुच्छेदमसदुत्पत्तिं चाननुभवतः क्रमेणोदीयमानाः नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवनामप्रकृतयः
सदुच्छेदमसदुत्पादं च कुर्वंतीति।। ५५।।
उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा।। ५६।।
उदयेनोपशमेन च क्षयेण द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां परिणामेन।
युक्तास्ते जीवगुणा बहुषु चार्थेषु विस्तीर्णाः।। ५६।।
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टीकाः– जीवको सत् भावके उच्छेद और असत् भावके उत्पादमें निमित्तभूत उपाधिका यह
प्रतिपादन है।

जिस प्रकार समुद्ररूपसे असत्के उत्पाद और सत्के उच्छेदका अनुभव न करनेवाले ऐसे
समुद्रको चारों दिशाओंमेंसे क्रमशः बहती हुई हवाएँ कल्लोलोंसम्बन्धी असत्का उत्पाद और सत्का
उच्छेद करती हैं [अर्थात् अविद्यमान तरंगके उत्पादमें और विद्यमान तरंगके नाशमें निमित्त बनती
है], उसी प्रकार जीवरूपसे सत्के उच्छेद और असत्के उत्पाद अनुभव न करनेवाले ऐसे जीवको
क्रमशः उदयको प्राप्त होने वाली नारक–तिर्यंच–मनुष्य–देव नामकी [नामकर्मकी] प्रकृतियाँ
[भावोंसम्बन्धी, पर्यायोंसम्बन्धी] सत्का उच्छेद तथा असत्का उत्पाद करती हैं [अर्थात् विद्यमान
पर्यायके नाशमें और अविद्यमान पर्यायके उत्पादमें निमित्त बनती हैं]।। ५५।।
गाथा ५६
अन्वयार्थः– [उदयेन] उदयसे युक्त, [उपशमेन] उपशमसे युक्त, [क्षयेण] क्षयसे युक्त,
[द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां] क्षयोपशमसे युक्त [च] और [परिणामेन युक्ताः] परिणामसे युक्त–[ते] ऐसे
[जीवगुणाः] [पाँच] जीवगुण [–जीवके भाव] हैं; [च] और [बहुषु अर्थेषु विस्तीर्णाः] उन्हें
अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है।
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परिणाम, उदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षये संयुक्त जे,
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे। ५६।