९८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जीवस्य भावोदयवर्णनमेतत्।
कर्मणां फलदानसमर्थतयोद्भूतिरुदयः, अनुद्भूतिरुपशमः, उद्भूत्यनुद्भूती क्षयोपशमः,
अत्यंतविश्लेषः क्षयः, द्रव्यात्मलाभहेतुकः परिणामः। तत्रोदयेन युक्त औदयिकः, उपशमेन युक्त
औपशमिकः, क्षयोपशमेन युक्तः क्षायोपशमिकः, क्षयेण युक्तः क्षायिकः, परिणामेन युक्तः पारिणामिकः।
त एते पञ्च जीवगुणाः। तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिबंधनाश्चत्वारः, स्वभावनिबंधन एकः। एते
चोपाधिभेदात्स्वरूपभेदाच्च भिद्यमाना बहुष्वर्थेषु विस्तार्यंत इति।। ५६।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– जीवको भावोंके उदयका [–पाँच भावोंकी प्रगटताका] यह वर्णन है।
कर्मोका १फलदानसमर्थरूपसे उद्भव सो ‘उदय’ है, अनुद्भव सो ‘उपशम’ है, उद्भव तथा
अनुद्भव सो ‘क्षयोपशम’ है, २अत्यन्त विश्लेष सो ‘क्षय’ है, द्रव्यका ३आत्मलाभ [अस्तित्व] जिसका
हेतु है वह ‘परिणाम’ है। वहाँ, उदयसे युक्त वह ‘औदयिक’ है, उपशमसे युक्त वह ‘औपशमिक’
है, क्षयोपशमसे युक्त वह ‘क्षायोपशमिक’ है, ४क्षयसे युक्त वह ‘क्षायिक’ है, ५परिणामसे युक्त वह
‘पारिणामिक’ है।– ऐसे यह पाँच जीवगुण हैं। उनमें [–इन पाँच गुणोंमें] ६उपाधिका चतुर्विधपना
जिनका कारण [निमित्त] है ऐसे चार हैं, स्वभाव जिसका कारण है ऐसा एक है। उपाधिके भेदसे
और स्वरूपके भेदसे भेद करने पर, उन्हें अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है।। ५६।।
--------------------------------------------------------------------------
१। फलदानसमर्थ = फल देनेमें समर्थ।
२। अत्यन्त विश्लेष = अत्यन्त वियोग; आत्यंतिक निवृत्ति।
३। आत्मलाभ = स्वरूपप्राप्ति; स्वरूपको धारण कर रखना; अपनेको धारण कर रखना; अस्तित्व। [द्रव्य अपनेको
धारण कर रखता है अर्थात् स्वयं बना रहता है इसलिये उसे ‘परिणाम’ है।]
४। क्षयसे युक्त = क्षय सहित; क्षयके साथ सम्बन्धवाला। [व्यवहारसे कर्मोके क्षयकी अपेक्षा जीवके जिस भावमें
आये वह ‘क्षायिक’ भाव है।]
५। परिणामसे युक्त = परिणाममय; परिणामात्मक; परिणामस्वरूप।
६। कर्मोपाधिकी चार प्रकारकी दशा [–उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय] जिनका निमित्त है ऐसे चार भाव
हैं; जिनमें कर्मोपाधिरूप निमित्त बिलकुल नहीं है, मात्र द्रव्यस्वभाव ही जिसका कारण है ऐसा एक पारिणामिक
भाव हैे।