कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं।
सो तस्स तेण कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं।। ५७।।
कर्म वेदयमानो जीवो भावं करोति याद्रशकम्।
स तस्य तेन कर्ता भवतीति च शासने पठितम्।। ५७।।
जीवस्यौदयिकादिभावानां कर्तृत्वप्रकारोक्तिरियम्।
जीवेन हि द्रव्यकर्म व्यवहारनयेनानुभूयते; तच्चानुभूयमानं जीवभावानां निमित्तमात्रमुपवर्ण्यते।
तस्मिन्निमित्तमात्रभूते जीवेन कर्तृभूतेनात्मनः कर्मभूतो भावः क्रियते। अमुना यो येन प्रकारेण जीवेन
भावः क्रियते, स जीवस्तस्य भावस्य तेन प्रकारेण कर्ता भवतीति।। ५७।।
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गाथा ५७
अन्वयार्थः– [कर्म वेदयमानः] कर्मको वेदता हआ [जीवः] जीव [याद्रश–कम् भावं] जैसे
भावको [करोति] करता है, [तस्य] उस भावका [तेन] उस प्रकारसे [सः] वह [कर्ता भवति]
कर्ता है–[इति च] ऐसा [शासने पठितम्] शासनमें कहा है।
टीकाः– यह, जीवके औदयिकादि भावोंके कर्तृत्वप्रकारका कथन है।
जीव द्वारा द्रव्यकर्म व्यवहारनयसे अनुभवमें आता है; और वह अनुभवमें आता हुआ
जीवभावोंका निमित्तमात्र कहलाता है। वह [द्रव्यकर्म] निमित्तमात्र होनेसे, जीव द्वारा कर्तारूपसे
अपना कर्मरूप [कार्यरूप] भाव किया जाता है। इसलिये जो भाव जिस प्रकारसे जीव द्वारा किया
जाता है, उस भावका उस प्रकारसे वह जीव कर्ता है।। ५७।।
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पुद्गलकरमने वेदतां आत्मा करे जे भावने,
ते भावनो ते जीव छे कर्ता–कह्युं जिनशासने। ५७।