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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा।
खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।। ५८।।
कर्मणा विनोदयो जीवस्य न विद्यत उपशमो वा।
क्षायिकः क्षायोपशमिकस्तस्माद्भावस्तु कर्मकृतः।। ५८।।
द्रव्यकर्मणां निमित्तमात्रत्वेनौदयिकादिभावकर्तृत्वमत्रोक्तम्।
न खलु कर्मणा विना जीवस्योदयोपशमौ क्षयक्षायोपशमावपि विद्येते; ततः
क्षायिकक्षायोपशमिकश्चौदयिकौपशमिकश्च भावः कर्मकृतोऽनुमंतव्यः। पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो
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गाथा ५८
अन्वयार्थः– [कर्मणा विना] कर्म बिना [जीवस्य] जीवको [उदयः] उदय, [उपशमः]
उपशम, [क्षायिकः] क्षायिक [वा] अथवा [क्षायोपशमिकः] क्षायोपशमिक [न विद्यते] नहीं होता,
[तस्मात् तु] इसलिये [भावः] भाव [–चतुर्विध जीवभाव] [कर्मकृतः] कर्मकृत हैं।
टीकाः– यहाँ, [औदयिकादि भावोंके] निमित्तमात्र रूपसे द्रव्यकर्मोको औदयिकादि भावोंका
कर्तापना कहा है।
[एक प्रकारसे व्याख्या करने पर–] कर्मके बिना जीवको उदय–उपशम तथा क्षय–क्षयोपशम
नहीं होते [अर्थात् द्रव्यकर्मके बिना जीवको औदयिकादि चार भाव नहीं होते]; इसलिये क्षायिक,
क्षायोपशमिक, औदयिक या औपशमिक भाव कर्मकृत संमत करना। पारिणामिक भाव तो अनादि–
अनन्त, निरुपाधि, स्वाभाविक ही हैं। [औदयिक और क्षायोपशमिक भाव कर्मके बिना नहीं होते
इसलिये कर्मकृत कहे जा सकते हैं– यह बात तो स्पष्ट समझमें आ सकती है; क्षायिक और
औपशमिक भावोंके सम्बन्धमें निम्नोक्तानुसार स्पष्टता की जाती हैः] क्षायिक भाव, यद्यपि स्वभावकी
व्यक्तिरूप [–प्रगटतारूप] होनेसे अनन्त [–अन्त रहित] है तथापि, कर्मक्षय द्वारा उत्पन्न होनेके
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निरुपाधि = उपाधि रहित; औपाधिक न हो ऐसा। [जीवका पारिणामिक भाव सर्व कर्मोपाधिसे निरपेक्ष होनेके
कारण निरुपाधि है।]
पुद्गलकरम विण जीवने उपशम, उदय, क्षायिक अने
क्षायोपशमिक न होय, तेथी कर्मकृत ए भाव छे। ५८।