कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
निरुपाधिः स्वाभाविक एव। क्षायिकस्तु स्वभावव्यक्तिरूपत्वादनंतोऽपि कर्मणः क्षयेणोत्पद्य– मानत्वात्सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः। औपशमिकस्तु कर्मणामुपशमे समुत्पद्यमानत्वादनुपशमे समुच्छिद्यमानत्वात् कर्मकृत एवेति।
अथवा उदयोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणाश्चतस्रो द्रव्यकर्मणामेवावस्थाः, न पुनः परिणाम– लक्षणैकावस्थस्य जीवस्य; तत उदयादिसंजातानामात्मनो भावानां निमित्त–
ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सगं भावं।। ५९।।
न करोत्यात्मा किंचिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावम्।। ५९।।
----------------------------------------------------------------------------- कारण सादि है इसलिये कर्मकृत ही कहा गया है। औपशमिक भाव कर्मके उपशमसे उत्पन्न होनेके कारण तथा अनुपशमसे नष्ट होनेके कारण कर्मकृत ही है। [इस प्रकार औदयिकादि चार भावोंको कर्मकृत संमत करना।]
अथवा [दूसरे प्रकारसे व्याख्या करने पर]– उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमस्वरूप चार [अवस्थाएँ] द्रव्यकर्मकी ही अवस्थाएँ हैं, परिणामस्वरूप एक अवस्थावाले जीवकी नहीं है [अर्थात् उदय आदि अवस्थाएँ द्रव्यकर्मकी ही हैं, ‘परिणाम’ जिसका स्वरूप है ऐसी एक अवस्थारूपसे अवस्थित जीवकी–पारिणामिक भावरूप स्थित जीवकी –वे चार अवस्थाएँ नहीं हैं]; इसलिये उदयादिक द्वारा उत्पन्न होनेवाले आत्माके भावोंको निमित्तमात्रभूत ऐसी उस प्रकारकी अवस्थाओंंरूप [द्रव्यकर्म] स्वयं परिणमित होनेके कारण द्रव्यकर्म भी व्यवहारनयसे आत्माके भावोंके कतृत्वको प्राप्त होता है।। ५८।।
कर्ता भवति] आत्मा कर्मका [–द्रव्यकर्मका] कर्ता होना चाहिये। [कथं] वह तो कैसे हो सकता है? [आत्मा] क्योंकि आत्मा तो [स्वकं भावं मुक्त्वा] अपने भावको छोड़कर [अन्यत् किंचित् अपि] अन्य कुछ भी [न करोति] नहीं करता। --------------------------------------------------------------------------
जीव तो कदी करतो नथी निज भाव विण कंई अन्यने। ५९।