भगवान कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित अनेक शास्त्र हैं, जिनमेंसे कुछ वर्तमानमें विद्यमान हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवके मुखसे प्रवाहित श्रुतामृत सरितामेंसे भर लिये गये अमृतभाजन आज भी अनेक आत्मार्थियोंको आत्मजीवन प्रदान कर रहे हैं। उनके समयसार, प्रवचनसार, नियमसार और पंचास्तिकायसंग्रह नामक उत्तमोत्तम परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आजाता है। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रंथोंके बीज इन परमागमोंमें विद्यमान हैं ऐसा सूक्ष्म द्रष्टिसे अभ्यास करने पर ज्ञात होता है। श्री समयसार इस भरतक्षेत्रका सर्वोत्कृष्ट परमागम है। उसमें नव तत्त्वोंका शुद्धनयकी द्रष्टिसे निरूपण करके जीवका शुद्ध स्वरूप सर्व प्रकारसे–आगम, युक्ति, अनुभव और परम्परासे–अति विस्तारपूर्वक समझाया है। श्री प्रवचनसारमें उसके नामानुसार जिनप्रवचनका सार संगृहित किया है तथा उसे ज्ञानतत्त्व, ज्ञेयतत्त्व और चरणानुयोगके तीन अधिकारोंमें विभाजित कर दिया है। श्री नियमसारमें मोक्षमार्गका स्पष्ट सत्यार्थ निरूपण है। जिस प्रकार समयसारमें शुद्धनयसे नव तत्त्वोंंका निरूपण किया है उसी प्रकार नियमसारमें मुख्यतः शुद्धनयसे जीव, अजीव, शुद्धभाव, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित, समाधि, भक्ति, आवश्यक, शुद्धोपयोग आदिका वर्णन है। श्री पंचास्तिकायसंग्रहमें काल सहित पाँच अस्तिकायोंका (अर्थात् छह द्रव्योंका) और नव पदार्थपूर्वक मोक्षमार्गका निरूपण है।
इस पंचास्तिकायसंग्रह परमागमको प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकर्ताने इसे ‘सर्वज्ञ महामुनिके मुखसे कहे गये पदार्थोंका प्रतिपादक, चतुर्गतिनाशक और निर्वाणका कारण’ कहा है। इसमें कहे गये वस्तुतत्त्वका सार इस प्रकार हैः–
विश्व अर्थात अनादि–अनंत स्वयंसिद्ध सत् ऐसी अनंतानन्त वस्तुओंका समुदाय। उसमेंकी प्रत्येक वस्तु अनुत्पन्न एवं अविनाशी है। प्रत्येक वस्तुमें अनंत शक्तियाँ अथवा गुण हैं, जो त्रैकालिक नित्य है। प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण अपनेमें अपना कार्य करती होने पर भी अर्थात् नवीन दशाऐं– अवस्थायें–पर्यायें धारण करती हैं तथापि वे पर्यायें ऐसी मर्यादामें रहकर होती हैं कि वस्तु अपनी जातिको नहीं छोड़ती अर्थात् उसकी शक्तियोंमेंसे एक भी कम–अधिक नहीं होती। वस्तुओंकी [– द्रव्योंकी] भिन्नभिन्न शक्तियोंकी अपेक्षासे उनकी [–द्रव्योंकी] छह जातियाँ हैः जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य। जिसमें सदा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख आदि अनंत गुण [–शक्तियाँ] हो वह जीवद्रव्य है; जिसमें सदा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि अनंत गुण हो वह पुद्गलद्रव्य है; शेष चार द्रव्योंके विशिष्ट गुण अनुक्रमसे गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व तथा वर्तनाहेतुत्व हैे। इन छह द्रव्योंमेंसे प्रथम पाँच द्रव्य सत् होनेसे तथा शक्ति अथवा व्यक्ति– अपेक्षासे विशाल क्षेत्रवाले होनेसे ‘अस्तिकाय’ है; कालद्रव्य ‘अस्ति’ है ‘काय’ नहीं है। जिनेन्द्रके ज्ञानदर्पणमें झलकते हुए यह सर्व द्रव्य – अनंत जीवद्रव्य, अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य, तथा असंख्य कालद्रव्य,–स्वयं परिपूर्ण हैं और अन्य द्रव्योंसे बिलकुल स्वतंत्र हैं; वे परमार्थतः कभी एक दूसरेसे मिलते नहीं हैं, भिन्न ही रहते हैं। देव, मनुष्य, तिर्यंञ्च, नारक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, आदि जीवोंमें जीव–पुद्गल मानो मिल गये हों ऐसा लगता हैं किन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। वे बिलकुल पृथक हैं। सर्व जीव अनन्त ज्ञानसुखकी निधि है तथापि, पर द्वारा उन्हें कुछ सुखदुःख नहीं होता तथापि, संसारी अज्ञानी जीव अनादि कालसे स्वतः अज्ञानपर्यायरूप परिणमित होकर अपने ज्ञानानंदस्वभावको, परिपूर्णताको, स्वातंक्र्यको एवं