जैनधर्मोऽस्तु मंगलंम्।।’– यह श्लोक प्रत्येक दिगम्बर जैन शास्त्रपठनके प्रारम्भमें मंगलाचरणरूपसे
बोलता है। इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामी और गणधर भगवान श्री
गौतमस्वामीके पश्चात् तुर्त ही भगवान कुंदकुंदाचार्यका स्थान आता है। दिगम्बर जैन साधु अपनेको
कुंदकुंदाचार्यकी परम्पराका कहलानेमें गौरव मानते हैं। भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात्
गणधरदेवके वचनों जितने ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके पश्चात् होनेवाले ग्रंथकार आचार्य अपने
किसी कथनको सिद्ध करनेके लिये कुंदकुंदाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं जिससे वह कथन
निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। उनके पश्चात् लिखे गये ग्रंथोंमें उनके शास्त्रोंमेंसे बहुत अवतरण लिए
गये हैं। वास्तवमें भगवान कुंदकुंदाचार्यने अपने परमागमोंमें तीर्थंकरदेवों द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम
सिद्धांतोंको सुरक्षित करके मोक्षमार्गको स्थिर रखा है। वि० सं० ९९० में होनेवाले श्री देवसेनाचार्यवर
अपने दर्शनसार नामक ग्रंथमें कहते हैं कि
प्राप्त थी, जिन्होंने पूर्व विदेहमें जाकर सीमंधरभगवानकी वंदना की थी और उनसे प्राप्त हुए
श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया है ऐसे जो
जिनचन्द्रसुरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ
षट्प्राभृतकी श्री श्रुतसागरसूरिकृत टीकाके अंतमें लिखा है।
है।
१ भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके विदेह गमन सम्बन्धी एक उल्लेख
२ शिलालेखोंके लिये देखिये आगे ‘भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सम्बन्धी उल्लेख’।