Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 61.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१०३
पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धांतोऽयम्।
व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता; निश्चयेन तु न
जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः। न च ते कर्तारमंतरेण संभूयेते; यतो निश्चयेन
जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति।। ६०।।
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स।
ण हि पोग्गलकम्माणं इति जिणवयणं मुणेयव्वं।। ६१।।
कुर्वन् स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य।
न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम्।। ६१।।
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टीकाः– यह, पूर्व सूत्रमें [५९ वीं गाथामें] कहे हुए पूर्वपक्षके समाधानरूप सिद्धान्त है।
व्यवहारसे निमित्तमात्रपनेके कारण जीवभावका कर्म कर्ता है [–औदयिकादि जीवभावका कर्ता
द्रव्यकर्म है], कर्मका भी जीवभाव कर्ता है; निश्चयसे तो जीवभावोंका न तो कर्म कर्ता है और न
कर्मका जीवभाव कर्ता है। वे [जीवभाव और द्रव्यकर्म] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है;
क्योंकि निश्चयसे जीवपरिणामोंका जीव कर्ता है और कर्मपरिणामोंका कर्म [–पुद्गल] कर्ता है।।
६०।।
गाथा ६१
अन्वयार्थः– [स्वकं स्वभावं] अपने स्वभावको [कुर्वन्] करता हुआ [आत्मा] आत्मा [हि]
वास्तवमें [स्वकस्य भावस्य] अपने भावका [कर्ता] कर्ता है, [न पुद्गलकर्मणाम्] पुद्गलकर्मोका
नहीं; [इति] ऐसा [जिनवचनं] जिनवचन [ज्ञातव्यम्] जानना।
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यद्यपि शुद्धनिश्चयसे केवज्ञानादि शुद्धभाव ‘स्वभाव’ कहलाते हैं तथापि अशुद्धनिश्चयसे रागादिक भी ‘स्वभाव’
कहलाते हैं।
निज भाव करतो आतमा कर्ता खरे निज भावनो,
कर्ता न पुद्गलकर्मनो; –उपदेश जिननो जाणवो। ६१।