कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धांतोऽयम्।
व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता; निश्चयेन तु न जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः। न च ते कर्तारमंतरेण संभूयेते; यतो निश्चयेन जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति।। ६०।।
न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम्।। ६१।।
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टीकाः– यह, पूर्व सूत्रमें [५९ वीं गाथामें] कहे हुए पूर्वपक्षके समाधानरूप सिद्धान्त है।
व्यवहारसे निमित्तमात्रपनेके कारण जीवभावका कर्म कर्ता है [–औदयिकादि जीवभावका कर्ता द्रव्यकर्म है], कर्मका भी जीवभाव कर्ता है; निश्चयसे तो जीवभावोंका न तो कर्म कर्ता है और न कर्मका जीवभाव कर्ता है। वे [जीवभाव और द्रव्यकर्म] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है; क्योंकि निश्चयसे जीवपरिणामोंका जीव कर्ता है और कर्मपरिणामोंका कर्म [–पुद्गल] कर्ता है।। ६०।।
वास्तवमें [स्वकस्य भावस्य] अपने भावका [कर्ता] कर्ता है, [न पुद्गलकर्मणाम्] पुद्गलकर्मोका नहीं; [इति] ऐसा [जिनवचनं] जिनवचन [ज्ञातव्यम्] जानना। -------------------------------------------------------------------------- यद्यपि शुद्धनिश्चयसे केवज्ञानादि शुद्धभाव ‘स्वभाव’ कहलाते हैं तथापि अशुद्धनिश्चयसे रागादिक भी ‘स्वभाव’
कर्ता न पुद्गलकर्मनो; –उपदेश जिननो जाणवो। ६१।