Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 62.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
निश्चयेन जीवस्य स्वभावानां कर्तृत्वं पुद्गलकर्मणामकर्तृत्वं चागमेनोपदर्शितमत्र इति।।६१।।
कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं।
जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण
भावेण।। ६२।।
कर्मापि स्वकं करोति स्वेन स्वभावेन सम्यगात्मानम्।
जीवोऽपि च ताद्रशकः कर्मस्वभावेन भावेन।। ६२।।
अत्र निश्चयनयेनाभिन्नकारकत्वात्कर्मणो जीवस्य च स्वयं स्वरूपकर्तृत्वमुक्तम्।
कर्म खलु कर्मत्वप्रवर्तमानपुद्गलस्कंधरूपेण कर्तृतामनुबिभ्राणं, कर्मत्वगमनशक्तिरूपेण
करणतामात्मसात्कुर्वत्, प्राप्यकर्मत्वपरिणामरूपेण कर्मतां कलयत्, पूर्वभावव्यपायेऽपि ध्रुवत्वा–
लंबनादुपात्तापादानत्वम्, उपजायमानपरिणामरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढसंप्रदानत्वम्, आधीय–
मानपरिणामाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वं, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकांतरम–
पेक्षते।
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टीकाः– निश्चयसे जीवको अपने भावोंका कर्तृत्व है और पुद्गलकर्मोंका अकर्तृत्व है ऐसा यहाँ
आगम द्वारा दर्शाया गया है।। ६१।।
गाथा ६२
अन्वयार्थः– [कर्म अपि] कर्म भी [स्वेन स्वभावेन] अपने स्वभावसे [स्वकं करोति] अपनेको
करते हैं [च] और [ताद्रशकः जीवः अपि] वैसा जीव भी [कर्मस्वभावेन भावेन] कर्मस्वभाव भावसे
[–औदयिकादि भावसे] [सम्यक् आत्मानम्] बराबर अपनेको करता है।
टीकाः– निश्चयनयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म और जीव स्वयं स्वरूपके [–अपने–अपने
रूपके] कर्ता है ऐसा यहाँ कहा है।
कर्म वास्तवमें [१] कर्मरूपसे प्रवर्तमान पुद्गलस्कंधरूपसे कर्तृत्वको धारण करता हुआ, [२]
कर्मपना प्राप्त करनेकी शक्तिरूप करणपनेको अंगीकृत करता हुआ, [३] प्राप्य ऐसे
कर्मत्वपरिणामरूपसे कर्मपनेका अनुभव करता हुआ, [४] पूर्व भावका नाश हो जाने पर भी ध्रुवत्वको
अवलम्बन करनेसे जिसने अपादानपनेको प्राप्त किया है ऐसा, [५] उत्पन्न होने वाले परिणामरूप
कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे [अर्थात् उत्पन्न होने वाले परिणामरूप कार्य अपनेको
दिया जानेसे]
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रे! कर्म आपस्वभावथी निज कर्मपर्ययने करे,
आत्माय कर्मस्वभावरूप निज भावथी निजने करे। ६२।