ध्रुवत्वालंबनादुपात्तापादानत्वम्, उपजायमानभावपर्यायरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढ–संप्रदानत्व;,
आधीयमानभावपर्यायाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न
कारकांतरमपेक्षते। अतः कर्मणः कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेनेति।।
६२।।
ग्रहण किया है ऐसा – स्वयमेव षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता।
भावपर्यायरूपसे कर्मपनेका अनुभव करता हुआ, [४] पूर्व भावपर्यायका नाश होने पर ध्रुवत्वका
अवलम्बन करनेसे जिसने अपादानपनेको प्राप्त किया है ऐसा, [५] उत्पन्न होने वाले भावपर्यायरूप
कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे [अर्थात् उत्पन्न होने वाला भावपर्यायरूप कार्य अपनेको दिया जानेसे]
सम्प्रदानपनेको प्राप्त और [६] धारण की हुई भावपर्यायका आधार होनेसे जिसने अधिकरणपनेको
ग्रहण किया है ऐसा – स्वयमेव षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता।
प्राप्त करता – पहुँचता होनेसे द्रव्यकर्म कर्म है, अथवा द्रव्यकर्मसे स्वयं अभिन्न होनेसे पुद्गल स्वयं
ही कर्म [–कार्य] है; [४] अपनेमेसे पूर्व परिणामका व्यय करके द्रव्यकर्मरूप परिणाम करता होनेसे
और पुद्गलद्रव्यरूपसे ध्रुव रहता होनेसे पुद्गल स्वयं ही अपादान है; [५] अपनेको द्रव्यकर्मरूप
परिणाम देता होनेसे पुद्गल स्वयं ही सम्प्रदान है; [६] अपनेमें अर्थात् अपने आधारसे द्रव्यकर्म
करता होनेसे पुद्गल स्वयं ही अधिकरण है।