किध तस्स फलं भुजदि अप्पा कम्मं च देदि
कंथ तस्य फलं भुड्क्ते आत्मा कर्म च ददाति फलम्।। ६३।।
प्राप्त करता– पहुँचता होनेसे जीवभाव कर्म है, अथवा जीवभावसे स्वयं अभिन्न होनेसे जीव स्वयं ही
कर्म है; [४] अपनेमेंसे पूर्व भावका व्यय करके [नवीन] जीवभाव करता होनेसे और जीवद्रव्यरूपसे
ध्रुव रहनेसे जीव स्वयं ही अपादान है; [५] अपनेको जीवभाव देता होनेसे जीव स्वयं ही सम्प्रदान
है; [६] अपनेमें अर्थात् अपने आधारसे जीवभाव करता होनेसे जीव स्वयं ही अधिकरण है।
तथा जीवकी औदयिकादि भावरूपसे परिणमित होनेकी क्रियामें वास्तवमें जीव स्वयं ही छह
कारकरूपसे वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकोंकी अपेक्षा नहीं है। पुद्गलकी और जीवकी उपरोक्त
क्रियाएँ एक ही कालमें वर्तती है तथापि पौद्गलिक क्रियामें वर्तते हुए पुद्गलके छह कारक
जीवकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रियामें वर्तते हुए जीवके छह कारक
पुद्गलकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तवमें किसी द्रव्यके कारकोंको किसी अन्य द्रव्यके
कारकोंकी अपेक्षा नहीं होती।। ६२।।
क्यम कर्म फळ दे जीवने? क्यम जीव ते फळ भोगवे? ६३।