Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 70.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
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उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो।
णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि
धीरो।। ७०।।
उपशांतक्षीणमोहो मार्ग जिनभ षितेन समुपगतः।
ज्ञानानुमार्गचारी निर्वाणपुरं व्रजति धीरः।। ७०।।
कर्मवियुक्तत्वमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत्।

अयमेवात्मा यदि जिनाज्ञया मार्गमुपगम्योपशांतक्षीणमोहत्वात्प्रहीणविपरीताभिनिवेशः
समुद्भिन्नसम्ग्ज्ञानज्योतिः कर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारं परिसमाप्य सम्यक्प्रकटितप्रभुत्वशक्तिर्ज्ञानस्यै–
वानुमार्गेण चरति, तदा विशुद्धात्मतत्त्वोपलंभरूपमपवर्गनगरं विगाहत इति।। ७०।।
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गाथा ७०
अन्वयार्थः– [जिनभाषितेन मार्ग समुपगतः] जो [पुरुष] जिनवचन द्वारा मार्गको प्राप्त करके
[उपशांतक्षीणमोहः] उपशांतक्षीणमोह होता हुआ [अर्थात् जिसे दर्शनमोहका उपशम, क्षय अथवा
क्षयोपशम हुआ है ऐसा होता हुआ] [ज्ञानानुमार्गचारी] ज्ञानानुमार्गमें विचरता है [–ज्ञानका
अनुसरण करनेवाले मार्गे वर्तता है], [धीरः] वह धीर पुरुष [निर्वाणपुरं व्रजति] निर्वाणपुरको प्राप्त
होता है।
टीकाः– यह, कर्मवियुक्तपनेकी मुख्यतासे प्रभुत्वगुणका व्याख्यान है।
जब यही आत्मा जिनाज्ञा द्वारा मार्गको प्राप्त करके, उपशांतक्षीणमोहपनेके कारण
[दर्शनमोहके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके कारण] जिसे विपरीत अभिनिवेश नष्ट हो जानेसे
सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा होता हुआ, कर्तृत्व और भोक्तृत्वके अधिकारको समाप्त करके
सम्यक्रूपसे प्रगट प्रभुत्वशक्तिवान होता हुआ ज्ञानका ही अनुसरण करनेवाले मार्गमें विचरता है
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जिनवचनथी लही मार्ग जे, उपशांतक्षीणमोही बने,
ज्ञानानुमार्ग विषे चरे, ते धीर शिवपुरने वरे। ७०।