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भोक्तृ। कुतः? चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात्। ततश्चेत–नत्वात् केवल एव जीवः कर्मफलभूतानां कथंचिदात्मनः सुखदुःखपरिणामानां कथंचिदिष्टा–निष्टविषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति।। ६८।।
हिडदि पारमपारं संसारं मोहसंछण्णो।। ६९।।
हिंडते पारमपारं संसारं मोहसंछन्नः।। ६९।।
कर्मसंयुक्तत्वमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत्। एवमयमात्मा प्रकटितप्रभुत्वशक्तिः स्वकैः कर्मभिर्गृहीतकर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारोऽनादिमोहा– वच्छन्नत्वादुपजातविपरीताभिनिवेशः प्रत्यस्तमितसम्यग्ज्ञानज्योतिः सांतमनंतं वा संसारं परिभ्रमतीति।। ६९।। ----------------------------------------------------------------------------- मात्र जीव ही कर्मफलका – कथंचित् आत्माके सुखदुःखपरिणामोंका और कथंचित् ईष्टानिष्ट विषयोंका – भोक्ता प्रसिद्ध है।। ६८।।
अन्वयार्थः– [एवं] इस प्रकार [स्वकैः कर्मभिः] अपने कर्मोंसे [कर्ता भोक्ता भवन्] कर्ता– भोक्ता होता हुआ [आत्मा] आत्मा [मोहसंछन्नः] मोहाच्छादित वर्तता हुआ [पारम् अपारं संसारं] सान्त अथवा अनन्त संसारमें [हिंडते] परिभ्रमण करता है।
टीकाः– यह, कर्मसंयुक्तपनेकी मुख्यतासे प्रभुत्वगुणका व्याख्यान है।
इस प्रकार प्रगट प्रभुत्वशक्तिके कारण जिसने अपने कर्मों द्वारा [–निश्चयसे भावकर्मों और व्यवहारसे द्रव्यकर्मों द्वारा] कर्तृत्व और भोक्तृत्वका अधिकार ग्रहण किया है ऐसे इस आत्माको, अनादि मोहाच्छादितपनेके कारण विपरीत अभिनिवेशकी उत्पत्ति होनेसे सम्यग्ज्ञानज्योति अस्त हो गई है, इसलिये वह सान्त अथवा अनन्त संसारमें परिभ्रमण करता है। [इस प्रकार जीवके कर्मसहितपनेकी मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणका व्याख्यान किया गया।।] ६९।। -------------------------------------------------------------------------- अभिनिवेश =अभिप्राय; आग्रह।
कर्ता अने भोक्ता थतो ए रीत निज कर्मो वडे
जीव मोहथी आच्छन्न सान्त अनन्त संसारे भमे। ६९।