कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
ोर्ंव्यकर्मोदयापादितेष्टानिष्टविषयाणां भोक्तृत्वात्तथाविधं फलं भुञ्जन्ते इति। एतेन जीवस्य भोक्तृत्वगुणोऽपि व्याख्यातः।। ६७।।
भेत्ता हु हवदि जीवो चेदगभावेण कम्मफलं।। ६८।।
भेक्ता तु भवति जीवश्चेतकभावेन कर्मफलम्।। ६८।।
कर्तृत्वभोक्तृत्वव्याख्योपसंहारोऽयम्।
त्त एतत् स्थित्त निश्चयेनात्मनः कर्म कर्तृ, व्यवहारेण जीवभावस्य; जीवोऽपि निश्चयेनात्मभावस्य कर्ता, व्यवहारणे कर्मण इति। यथात्रोभयनयाभ्यां कर्म कर्तृ, तथैकेनापि नयेन न -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिये [अथ जीवस्य भावेन हि संयुक्तम्] जीवके भावसे संयुक्त ऐसा [कर्म] कर्म [द्रव्यकर्म] [कर्तृ] कर्ता है। [–निश्चयसे अपना कर्ता और व्यवहारसे जीवभावका कर्ता; परन्तु वह भोक्ता नहीं है]। [भोक्ता तु] भोक्ता तो [जीवः भवति] [मात्र] जीव है [चेतकभावेन] चेतकभावके कारण [कर्मफलम्] कर्मफलका।
इसलिये [पूर्वोक्त कथनसे] ऐसा निश्चित हुआ कि–कर्म निश्चयसे अपना कर्ता है, व्यवहारसे जीवभावका कर्ता है; जीव भी निश्चयसे अपने भावका कर्ता है, व्यवहारसे कर्मका कर्ता है।
जिस प्रकार यह नयोंसे कर्म कर्ता है, उसी प्रकार एक भी नयसे वह भोक्ता नहीं है। किसलिये? क्योंकि उसेे चैतन्यपूर्वक अनुभूतिका सद्भाव नहीं है। इसलिये चेतनापने के कारण
-------------------------------------------------------------------------- जो अनुभूति चैतन्यपूर्वक हो उसीको यहाँ भोक्तृत्व कहा है, उसके अतिरिक्त अन्य अनुभूतिको नहीं।
तेथी करम, जीवभावसे संयुक्त कर्ता जाणवुं;
भोक्तापणुं तो जीवने चेतकपणे तत्फल तणुं ६८।