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निश्चयेन सुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेणेष्टा–निष्टविषयाणां निमित्तमात्रत्वात्पुद्गलकायाः सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्ति। जीवाश्च निश्चयेन निमित्तमात्रभुतद्रव्यकर्मनिर्वर्तितसुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेण ----------------------------------------------------------------------------- निमित्तमात्र होनेकी अपेक्षासे निश्चयसे, और ईष्टानिष्ट विषयोंके निमित्तमात्र होनेकी अपेक्षासे व्यवहारसे सुखदुःखरूप फल देते हैं; तथा जीव निमित्तमात्रभूत द्रव्यकर्मसे निष्पन्न होनेवाले सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोंको भोक्ता होनेकी अपेक्षासे निश्चयसे, और [निमित्तमात्रभूत] द्रव्यकर्मके उदयसे सम्पादित ईष्टानिष्ट विषयोंके भोक्ता होनेकी अपेक्षासे व्यवहारसे, उसप्रकारका [सुखदुःखरूप] फल भोगते हैं [अर्थात् निश्चयसे सुखदुःखपरिणामरूप और व्यवहारसे ईष्टानिष्टा विषयरूप फल भोगते हैं]। -------------------------------------------------------------------------- [१] सुखदुःखपरिणामोंमें तथा [२] ईष्टानिष्ट विषयोंके संयोगमें शुभाशुभ कर्म निमित्तभूत होते हैं, इसलिये उन
विषयरूप फल ‘देनेवाला’ ’’ [उपचारसे] कहा जा सकता है। अब, [१] सुखदुःखपरिणाम तो जीवकी
अपनी ही पर्यायरूप होनेसे जीव सुखदुःखपरिणामको तो ‘निश्चयसे’ भोगता हैं, और इसलिये
सुखदुःखपरिणाममें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोंमें भी [–जिन्हेंं ‘‘सुखदुःखपरिणामरूप फल
देनेवाला’’ कहा था उनमें भी] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा सकता हैे कि ‘‘वे जीवको ‘निश्चयसे’
सुखदुःखपरिणामरूप फल देते हैं;’’ तथा [२] ईष्टानिष्ट विषय तो जीवसे बिलकुल भिन्न होनेसे जीव ईष्टानिष्ट
विषयोंको तो ‘व्यवहारसे’ भोगता हैं, और इसलिये ईष्टानिष्ट विषयोंमें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोंमें
भी [–जिन्हेंं ‘‘ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देनेवाला ’’ कहा था उनमें भी ] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा
सकता हैे कि ‘‘वे जीवको ‘व्यवहारसे’ ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देते हैं।’’
जीवसे बिल्कुल भिन्न हैं।’ परन्तु यहाँ कहे हुए निश्चयरूपसे भंगसे ऐसा नहीं समझना चाहिये कि ‘पौद्गलिक
कर्म जीवको वास्तवमें फल देता है और जीव वास्तवमें कर्मके दिये हुए फलको भोगता है।’
भोगे तो दोनों द्रव्य एक हो जायें। यहाँ यह ध्यान रखना खास आवश्यक है कि टीकाके पहले पैरेमें सम्पूर्ण
गाथाके कथनका सार कहते हुए श्री टीकाकार आचार्यदेव स्वयं ही जीवको कर्म द्वारा दिये गये फलका
उपभोग व्यवहारसे ही कहा है, निश्चयसे नहीं।
सुखदुःखके दो अर्थ होते हैः [१] सुखदुःखपरिणाम, और [२] ईष्टानिष्ट विषय। जहाँ ‘निश्चयसे’ कहा है वहाँ
ऐसा अर्थ समझना चहिये।