कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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निश्चयेन जीवकर्मणोश्चैककर्तृत्वेऽपि व्यवहारेण कर्मदत्तफलोपलंभो जीवस्य न विरुध्यत
इत्यत्रोक्तम्।
जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात्पुद्गलस्कंधाश्च स्वभावस्निग्धत्वाद्बंधावस्थायां परमाणु–
द्वंद्वानीवान्योन्यावगाहग्रहणप्रतिबद्धत्वेनावतिष्ठंते। यदा तु ते परस्परं वियुज्यंते, तदोदित–प्रच्यवमाना
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गाथा ६७
अन्वयार्थः– [जीवाः पुद्गलकायाः] जीव और पुद्गलकाय [अन्योन्यावगाढ–ग्रहणप्रतिबद्धाः]
[विशिष्ट प्रकारसे] अन्योन्य–अवगाहके ग्रहण द्वारा [परस्पर] बद्ध हैं; [काले वियुज्यमानाः] कालमें
पृथक होने पर [सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति] सुखदुःख देते हैं और भोगते हैं [अर्थात् पुद्गलकाय
सुखदुःख देते हैं और जीव भोगते हैं]।
टीकाः– निश्चयसे जीव और कर्मको एकका [निज–निज रूपका ही] कर्तृत्व होने पर भी,
व्यवहारसे जीवको कर्मे द्वारा दिये गये फलका उपभोग विरोधको प्राप्त नहीं होता [अर्थात् ‘कर्म
जीवकोे फल देता है और जीव उसे भोगता है’ यह बात भी व्यवहारसे घटित होती है] ऐसा यहाँ
कहा है।
जीव मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध होनेके कारण तथा पुद्गलस्कंध स्वभावसे स्निग्ध होनेके कारण,
[वे] बन्ध–अवस्थामें– परमाणुद्वंद्वोंकी भाँति–[विशिष्ट प्रकारसे] अन्योन्य–अवगाहके ग्रहण द्वारा
बद्धरूपसे रहते हैं। जब वे परस्पर पृथक होते हैं तब [पुद्गलस्कन्ध निम्नानुसार फल देते हैं और
जीव उसे भोगते हैं]– उदय पाकर खिर जानेवाले पुद्गलकाय सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोंके
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परमाणुद्वंद्व= दो परमाणुओंका जोड़ा; दो परमाणुओंसे निर्मित स्कंध; द्वि–अणुक स्कंध।