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अनन्यकृतत्वं कर्मणां वैचिक्र्यस्यात्रोक्तम्।
यथा हि स्वयोग्यचंद्रार्कप्रभोपलंभे। संध्याभ्रेंद्रचापपरिवेषप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः पुद्गल– स्कंधविकल्पाः कंर्त्रतरनिरपेक्षा एवोत्पद्यंते, तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलंभे ज्ञानावरणप्रभृति– भिर्बहुभिः प्रकारैः कर्माण्यपि कंर्त्रतरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यंते इति।। ६६।।
काले विजुज्जमाणा सहदुक्खं दिंति भुंजंति।। ६७।।
काले वियुज्यमानाः सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति।। ६७।।
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अन्वयार्थः– [यथाः] जिस प्रकार [पुद्गलद्रव्याणां] पुद्गलद्रव्योंंकी [बहुप्रकारैः] अनेक प्रकारकी [स्कंधनिर्वृत्तिः] स्कन्धरचना [परैः अकृता] परसे किये गये बिना [द्रष्टा] होती दिखाई देती है, [तथा] उसी प्रकार [कर्मणां] कर्मोंकी बहुप्रकारता [विजानीहि] परसे अकृत जानो।
टीकाः– कर्मोंकी विचित्रता [बहुप्रकारता] अन्य द्वारा नहीं की जाती ऐसा यहाँ कहा है।
जिस प्रकार अपनेको योग्य चंद्र–सूर्यके प्रकाशकी उपलब्धि होने पर, संध्या–बादल इन्द्रधनुष–प्रभामण्डळ इत्यादि अनेक प्रकारसे पुद्गलस्कंधभेद अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार अपनेको योग्य जीव–परिणामकी उपलब्धि होने पर, ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारके कर्म भी अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होते हैं।
भावार्थः– कर्मोकी विविध प्रकृति–प्रदेश–स्थिति–अनुभागरूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है, पुद्गलकृत ही है।। ६६।।
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काळे वियोग लहे तदा सुखदुःख आपे–भोगवे। ६७।