कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
अन्याकृतकर्मसंभूतिप्रकारोक्तिरियम्। आत्मा हि संसारावस्थायां पारिणामिकचैतन्यस्वभावमपरित्यजन्नेवानादिबंधनबद्धत्वाद– नादिमोहरागद्वेषस्निग्धैरविशुद्धैरेव भावैर्विवर्तते। स खलु यत्र यदा मोहरूपं रागरूपं द्वेषरूपं वा स्वस्य भावमारभते, तत्र तदा तमेव निमित्तीकृत्य जीवप्रदेशेषु परस्परावगाहेनानुप्रविष्टा स्वभावैरेव पुद्गलाः कर्मभावमापद्यंत इति।। ६५।।
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि।। ६६।।
अकृता परैर्द्रष्टा तथा कर्मणां विजानीहि।। ६६।।
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[तत्र गताः पुद्गलाः] [तब] वहाँ रहनेवाले पुद्गल [स्वभावैः] अपने भावोंसे [अन्योन्यावगाहावगाढाः] जीवमें [विशिष्ट प्रकारसे] अन्योन्य–अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए [कर्मभावम् गच्छन्ति] कर्मभावको प्राप्त होते हैं।
आत्मा वास्तवमें संसार–अवस्थामें पारिणामिक चैतन्यस्वभावको छोड़े बिना ही अनादि बन्धन द्वारा बद्ध होनेसे अनादि मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे अविशुद्ध भावोंंरूपसे ही विवर्तनको प्राप्त होता है [– परिणमित होता है]। वह [संसारस्थ आत्मा] वास्तवमें जहाँ और जब मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप ऐसे अपने भावको करता है। वहाँ और उस समय उसी भावको निमित्त बनाकर पुद्गल अपने भावोंसे ही जीवके प्रदेशोंमें [विशिष्टतापूर्वक] परस्पर अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए कर्मभावको प्राप्त होते हैं।
स्थित कार्माणवर्गणारूप पुद्गलस्कंध उसी कालमें स्वयं अपने भावोंसे ही जीवके प्रदेशोंमें विशेष प्रकारसे परस्पर– अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए कर्मपनेको प्राप्त होते हैं। -------------------------------------------------------------------------- स्निग्ध=चीकने; चीकनाईवाले। [मोहरागद्वेष कर्मबंधमें निमितभूत होनेके कारण उन्हें स्निग्धताकी उपमा दी
परथी अकृत, ते रीत जाणो विविधता कर्मो तणी। ६६।