चंक्रमणत्वाच्चतुश्चंक्रमणः, पञ्चभिः पारिणामिकौदयिकादिभिरग्रगुणैः प्रधानत्वात्पञ्चाग्रगुणप्रधानः,
चतसृषु दिक्षूर्ध्वमधश्चेति भवांतरसंक्रमणषट्केनापक्रमेण युक्तत्वात्षट्कापक्रमयुक्तः, असित–
नास्त्यादिभिः सप्तभङ्गैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः,
नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येक–द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियरूपेषु
दशसु स्थानेषु गतत्वाद्रशस्थानग इति।। ७१–७२।।
उड्ढं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदिं
ज्ञानचेतना ऐसे भेदोंं द्वारा अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश ऐसे भेदों द्वारा लक्षित होनेसे ‘त्रिलक्षण
[तीन लक्षणवाला]’ है; [४] चार गतियोंमें भ्रमण करता है इसलिये ‘चतुर्विध भ्रमणवाला’ है; [५]
पारिणामिक औदयिक इत्यादि पाँच मुख्य गुणों द्वारा प्रधानता होनेसे ‘पाँच मुख्य गुणोंसे
प्रधानतावाला’ है; [६] चार दिशाओंमें, ऊपर और नीचे इस प्र्रकार षड्विध भवान्तरगमनरूप
अपक्रमसे युक्त होनेके कारण [अर्थात् अन्य भवमें जाते हुए उपरोक्त छह दिशाओंमें गमन होता है
इसलिये] ‘छह अपक्रम सहित’ है; [७] अस्ति, नास्ति आदि सात भंगो द्वारा जिसका सद्भाव है
ऐसा होनेसे ‘सात भंगपूर्वक सद्भाववान’ है; [८] [ज्ञानावरणीयादि] आठ कर्मोंके अथवा
[सम्यक्त्वादि] आठ गुणोंके आश्रयभूत होनेसे ‘आठके आश्रयरूप’ है; [९] नव पदार्थरूपसे वर्तता
है इसलिये ‘नव–अर्थरूप’ है; [१०] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति,
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियरूप दश स्थानोमें प्राप्त होनेसे ‘दशस्थानगत’ है।। ७१–
७२।।
गति होय ऊंचे; शेषने विदिशा तजी गति होय छे। ७३।