Panchastikay Sangrah (Hindi). Pudgaldravya-astikay ka vyakhyan Gatha: 74.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः सर्वतो मुक्तः।
ऊर्ध्व गच्छति शेषा विदिग्वर्जां गतिं यांति।। ७३।।
बद्धजीवस्य षङ्गतयः कर्मनिमित्ताः। मुक्तस्याप्यूर्ध्वगतिरेका स्वाभाविकीत्यत्रोक्तम्।। ७३।।
–इति जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्।
अथ पुद्गलद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू।
इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया
मुणेयव्वा।। ७४।।
स्कंधाश्च स्कंधदेशाः स्कंधप्रदेशाश्च भवन्ति परमाणवः।
इति ते चतुर्विकल्पाः पुद्गलकाया ज्ञातव्याः।। ७४।।
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गाथा ७३
अन्वयार्थः– [प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और
प्रदेशबन्धसे [सर्वतः मुक्तः] सर्वतः मुक्त जीव [ऊध्वं गच्छति] ऊर्ध्वगमन करता है; [शेषाः] शेष
जीव [भवान्तरमें जाते हुए] [विदिग्वर्जा गतिं यांति] विदिशाएँ छोड़ कर गमन करते हैं।
टीकाः– बद्ध जीवको कर्मनिमित्तक षड्विध गमन [अर्थात् कर्म जिसमें निमित्तभूत हैं ऐसा छह
दिशाओंंमें गमन] होता है; मुक्त जीवको भी स्वाभाविक ऐसा एक ऊर्ध्वगमन होता है। – ऐसा यहाँ
कहा है।
भावार्थः– समस्त रागादिविभाव रहित ऐसा जो शुद्धात्मानुभूतिलक्षण ध्यान उसके बल द्वारा
चतुर्विध बन्धसे सर्वथा मुक्त हुआ जीव भी, स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे युक्त वर्तता हुआ,
एकसमयवर्ती अविग्रहगति द्वारा [लोकाग्रपर्यंत] स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन करता है। शेष संसारी जीव
मरणान्तमें विदिशाएँ छोड़कर पूर्वोक्त षट्–अपक्रमस्वरूप [कर्मनिमित्तक] अनुश्रेणीगमन करते हैं।।
७३।।
इस प्रकार जीवद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान है।
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जडरूप पुद्गलकाय केरा चार भेदो जाणवा;
ते स्कंध तेनो देश, स्ंकधप्रदेश, परमाणु कह्या। ७४।