कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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बादरसुहुमगदाणं खंधाणं पुग्गलो त्ति ववहारो।
ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं।। ७६।।
बादरसौक्ष्म्यगतानां स्कंधानां पुद्गलः इति व्यवहारः।
ते भवन्ति षट्प्रकारास्त्रैलोक्यं यैः निष्पन्नम्।। ७६।।
स्कंधानां पुद्गलव्यवहारसमर्थनमेतत्।
स्पर्शरसगंधवर्णगुणविशेषैः षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिः पूरणगलनधर्मत्वात् स्कंध–
व्यक्त्याविर्भावतिरोभावाभ्यामपि च पूरणगलनोपपत्तेः परमाणवः पुद्गला इति निश्चीयंते।
स्कंधास्त्वनेकपुद्गलमयैकपर्यायत्वेन पुद्गलेभ्योऽनन्यत्वात्पुद्गला इति
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गाथा ७६
अन्वयार्थः– [बादरसौक्ष्म्यगतानां] बादर और सूक्ष्मरूपसे परिणत [स्कंधानां] स्कंधोंको
[पुद्गलः] ‘पुद्गल’ [इति] ऐसा [व्यवहारः] व्यवहार है। [ते] वे [षट्प्रकाराः भवन्ति] छह
प्रकारके हैं, [यैः] जिनसे [त्रैलोक्यं] तीन लोक [निष्पन्नम्] निष्पन्न है।
टीकाः– स्कंधोंमें ‘पुद्गल’ ऐसा जो व्यवहार है उसका यह समर्थन है।
[१] जिनमें षट्स्थानपतित [छह स्थानोंमें समावेश पानेवाली] वृद्धिहानि होती है ऐसे स्पर्श–
रस–गंध–वर्णरूप गुणविशेषोंके कारण [परमाणु] ‘पूरणगलन’ धर्मवाले होनेसे तथा [२]
स्कंधव्यक्तिके [–स्कंधपर्यायके] आविर्भाव और तिरोभावकी अपेक्षासे भी [परमाणुओंमें]
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सौ स्कंध बादर–सूक्ष्ममां ‘पुद्गल’ तणो व्यवहार छे;
छ विकल्प छे स्कंधो तणा, जेथी त्रिजग निष्पन्न छे। ७६।