Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 77.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन

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सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू।
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो।। ७७।।

सर्वेषां स्कंधानां योऽन्त्यस्तं विजानीहि परमाणुम्।
स शाश्वतोऽशब्दः एकोऽविभागी भूर्तिभवः।। ७७।।

परमाणुव्याख्येयम्।

उक्तानां स्कंधरूपपर्यायाणां योऽन्त्यो भेदः स परमाणुः। स तु पुनर्विभागाभावाद–विभागी, निर्विभागैकप्रदेशत्वादेकः, मूर्तद्रव्यत्वेन सदाप्यविनश्वरत्वान्नित्यः, अनादिनिधनरूपादिपरिणामोत्पन्नत्वान्मूर्तिभवः, रूपादिपरिणामोत्पन्नत्वेऽपि शब्दस्य परमाणुगुणत्वाभावात्पुद्गलस्कंधपर्यायत्वेन वक्ष्यमाणत्वाच्चाशब्दो निश्चीयत इति।। ७७।। -----------------------------------------------------------------------------

गाथा ७७

अन्वयार्थः– [सर्वषां स्कंधानां] सर्व स्कंधोंका [यः अन्त्यः] जो अन्तिम भाग [तं] उसे [परमाणुम् विजानीहि] परमाणु जानो। [सः] वह [अविभागी] अविभागी, [एकः] एक, [शाश्वतः], शाश्वत [मूर्तिभवः] मूर्तिप्रभव [मूर्तरूपसे उत्पन्न होनेवाला] और [अशब्दः] अशब्द है।

टीकाः– यह, परमाणुकी व्याख्या है।

पूर्वोक्त स्कंधरूप पर्यायोंका जो अन्तिम भेद [छोटे–से–छोटा अंश] वह परमाणु है। और वह तो, विभागके अभावके कारण अविभागी है; निर्विभाग–एक–प्रदेशी होनेसे एक है; मूर्तद्रव्यरूपसे सदैव अविनाशी होनेसे नित्य है; अनादि–अनन्त रूपादिके परिणामसे उत्पन्न होनेके कारण मूर्तिप्रभव है; और रूपादिके परिणामसे उत्पन्न होने पर भी अशब्द है ऐसा निश्चित है, क्योंकि शब्द परमाणुका गुण नहीं है तथा उसका[शब्दका] अब [७९ वीं गाथामें] पुद्गलस्कंधपर्यायरूपसे कथन है।। ७७।। -------------------------------------------------------------------------- मूर्तिप्रभव = मूर्तपनेरूपसे उत्पन्न होनेवाला अर्थात् रूप–गन्ध–रस स्पर्शके परिणामरूपसे जिसका उत्पाद होता है ऐसा।[मूर्ति = मूर्तपना]

जे अंश अंतिम स्कंधोनो, परमाणु जानो तेहने;
ते एकने अविभाग, शाश्वत, मूर्तिप्रभव, अशब्द छे। ७७।