Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 78.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
आदेसमेत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु।
सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्रे।। ७८।।

आदेशमात्रमूर्त्तः धातुचतुष्कस्य कारणं यस्तु।
स ज्ञेयः परमाणुः। परिणामगुणः स्वयमशब्दः।। ७८।।
परमाणूनां जात्यंतरत्वनिरासोऽयम्।
परमणोर्हि मूर्तत्वनिबंधनभूताः स्पर्शरसंगधवर्णा आदेशमात्रेणैव भिद्यंते; वस्तुवस्तु यथा तस्य स
एव प्रदेश आदिः स एव मध्यं, स एवांतः इति, एवं द्रव्यगुणयोरविभक्तप्रदेशत्वात् य एव परमाणोः
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गाथा ७८
अन्वयार्थः– [यः तु] जो [आदेशमात्रमूर्तः] आदेशमात्रसे मूर्त है। [अर्थात् मात्र भेदविवक्षासे
मूर्तत्ववाला कहलाता है] और [धातुचतुष्कस्य कारणं] जो [पृथ्वी आदि] चार धातुओंका कारण है
[सः] वह [परमाणुः ज्ञेयः] परमाणु जानना – [परिणामगुणः] जो कि परिणामगुणवाला है और
[स्वयम् अशब्दः] स्वयं अशब्द है।
टीकाः– परमाणु भिन्न भिन्न जातिके होनेका यह खण्डन है।
मूर्तत्वके कारणभूत स्पर्श–रस–गंध–वर्णका, परमाणुसे आदेशमात्र द्वारा ही भेद किया जाता
हैे; वस्तुतः तो जिस प्रकार परमाणुका वही प्रदेश आदि है, वही मध्य है और वही अन्त है; उसी
प्रकार द्रव्य और गुणके अभिन्न प्रदेश होनेसे, जो परमाणुका प्रदेश है, वही स्पर्शका है, वही रसका
है, वही गंधका है, वही रूपका है। इसलिये किसी परमाणुमें गंधगुण कम हो, किसी परमाणुमें
गंधगुण और रसगुण कम हो, किसी परमाणुमें गंधगुण, रसगुण और रूपगुण कम हो,
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आदेश=कथन [मात्र भेदकथन द्वारा ही परमाणुसे स्पर्श–रस–गंध–वर्णका भेद किया जाता है, परमार्थतः तो
परमाणुसे स्पर्श–रस–गंध–वर्णका अभेद है।]
आदेशमत्रश्थी मूर्त, धातुचतुष्कनो छे हेतु जे,
ते जाणवो परमाणु– जे परिणामी, आप अशब्द छे। ७८।