गंधगुणे, क्वचित् गंधरसगुणयोः, क्वचित् गंधरसरूपगुणेषु अपकृष्यमाणेषु तदविभक्तप्रदेशः परमाणुरेव
विनश्यतीति। न तदपकर्षो युक्तः। ततः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एव परमाणुः कारणं
परिणामवशात् विचित्रो हि परमाणोः परिणामगुणः क्वचित्कस्यचिद्गुणस्य व्यक्ताव्यक्तत्वेन विचित्रां
परिणतिमादधाति। यथा च तस्य परिणामवशादव्यक्तो गंधादिगुणोऽस्तीति प्रतिज्ञायते न तथा
शब्दोऽप्यव्यक्तोऽस्तीति ज्ञातुं शक्यते शक्यते तस्यैकप्रदेशस्यानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन
सहैकत्वविरोधादिति।। ७८।।
तो उस गुणसे अभिन्न प्रदेशी परमाणु ही विनष्ट हो जायेगा। इसलिये उस गुणकी न्यूनता युक्त
[उचित] नहीं है। [किसी भी परमाणुमें एक भी गुण कम हो तो उस गुणके साथ अभिन्न प्रदेशी
परमाणु ही नष्ट हो जायेगा; इसलिये समस्त परमाणु समान गुणवाले ही है, अर्थात् वे भिन्न भिन्न
जातिके नहीं हैं।] इसलिये पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप चार धातुओंका, परिणामके कारण, एक
ही परमाणु कारण है [अर्थात् परमाणु एक ही जातिके होने पर भी वे परिणामके कारण चार
धातुओंके कारण बनते हैं]; क्योंकि विचित्र ऐसा परमाणुका परिणामगुण कहीं किसी गुणकी
शब्दके साथ एकत्व होनेमें विरोध है।। ७८।।
अव्यक्त होता है ; अग्निमें स्पर्श और वर्ण व्यक्त होते हैं और शेष दो अव्यक्त होते हैं ; वायुमें स्पर्श व्यक्त
होता है और शेष तीन अव्यक्त होते हैं।]
२। जिस प्रकार परमाणुमें गंधादिगुण भले ही अव्यक्तरूपसे भी होते तो अवश्य हैं; उसी प्रकार परमाणुमें शब्द भी
है।