Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 82.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
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पञ्चानां वर्णपर्यायाणामन्यतमेनैकेनैकदा वर्णो वर्तते। उभयोर्गंधपर्याययोरन्यतरेणैकेनैकदा गंधो वर्तते।
चतुर्णां शीतस्निग्धशीतरूक्षोष्णस्निग्धोष्णरूक्षरूपाणां स्पर्शपर्यायद्वंद्वानामन्यतमेनैकेनैकदा स्पर्शो वर्तते।
एवमयमुक्तगुणवृत्तिः परमाणुः शब्दस्कंधपरिणतिशक्तिस्वभावात् शब्दकारणम्। एकप्रदेशत्वेन
शब्दपर्यायपरिणतिवृत्त्यभावादशब्दः। स्निग्धरूक्षत्वप्रत्ययबंधवशादनेकपरमाण्वेक–
त्वपरिणतिरूपस्कंधांतरितोऽपि स्वभावमपरित्यजन्नुपात्तसंख्यत्वादेक एव द्रव्यमिति।। ८१।।
उवभोज्जमिंदिएहिं य इंदियकाया मणो य कम्माणि।
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे।। ८२।।
उपभोग्यमिन्द्रियैश्चेन्द्रियकाया मनश्च कर्माणि।
यद्भवति मूर्तमन्यत् तत्सर्वं पुद्गलं जानीयात्।। ८२।।
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दो गंधपर्यायोंमेंसे एक समय किसी एक [गंधपर्याय] सहित गंध वर्तता है; शीत–स्निग्ध, शीत–रूक्ष,
उष्ण–स्निग्ध और उष्ण–रूक्ष इन चार स्पर्शपर्यायोंके युगलमेंसे एक समय किसी एक युगक सहित
स्पर्श वर्तता है। इस प्रकार जिसमें गुणोंका वर्तन [–अस्तित्व] कहा गया है ऐसा यह परमाणु
शब्दस्कंधरूपसे परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे शब्दका कारण है; एकप्रदेशी होनेके
कारण शब्दपर्यायरूप परिणति नही वर्तती होनेसे अशब्द है; और
स्निग्ध–रूक्षत्वके कारण बन्ध
होनेसे अनेक परमाणुओंकी एकत्वपरिणतिरूप स्कन्धके भीतर रहा हो तथापि स्वभावको नहीं
छोड़ता हुआ, संख्याको प्राप्त होनेसे [अर्थात् परिपूर्ण एकके रूपमें पृथक् गिनतीमें आनेसे]
अकेला
ही द्रव्य है।। ८१।।
गाथा ८२
अन्वयार्थः– [इन्द्रियैः उपभोग्यम् च] इन्द्रियोंं द्वारा उपभोग्य विषय, [इन्द्रियकायाः] इन्द्रियाँ, शरीर,
[मनः] मन, [कर्माणि] कर्म [च] और [अन्यत् यत्] अन्य जो कुछ [मूर्त्तं भवति] मूर्त हो [तत्
सर्वं] वह सब [पुद्गलं जानीयात्] पुद्गल जानो।
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१। स्निग्ध–रूक्षत्व=चिकनाई और रूक्षता।

२। यहाँ ऐसा बतलाया है कि स्कंधमें भी प्रत्येक परमाणु स्वयं परिपूर्ण है, स्वतंत्र है, परकी सहायतासे रहित ,
और अपनेसे ही अपने गुणपर्यायमें स्थितहै।

इन्द्रिय वडे उपभोग्य, इन्द्रिय, काय, मन ने कर्म जे,
वळी अन्य जे कंई मूर्त ते सघळुंय पुद्गल जाणजे। ८२।